आज की शाम
वो शाम न थी
जिसके आगोश में अपने पराये
हँसते खेलते बाँटते थे अपना अमन ओ’ चैन
दुःख दर्द, कल के सपने !
घर की दहलीज़ पर देती दस्तख़
आज की साँझ, वो साँझ न थी ... आज की शाम
दूर क्षितिज पर ढलती लालिमा
आज सिन्दूरी रंग की अपेक्षा
कुछ ज्यादा ही गाढ़ी लाल दिखाई दे रही थी
उस के इस रंग में बदनीयती की बू आ रही थी
जो अहसास दिला रही थी दिन के क़त्ल होने का ?
आज की फ़िज़ा, ओ फ़िज़ा न थी .... आज की शाम
चौक से जाती गलियाँ
उदास थीं ...
गुजरता मोड़,
गुमसुम था
खेत की मेंड़
भी ग़मगीन थी
शहर का कुत्ता भी चुप था
ये शहर, आज वो शहर न था ... आज की शाम
धमाकों के साथ चीखते स्वर
सहारों की तलाश में भटकते
लहू में सने हाथ .....
अफ़रा तफ़री में भागते गिरते लोग
ये रौनकी बाज़ार पल में श्मशान बन गया
यहाँ पर पहले सा मौहोल तो कभी न था
ये क्या हो गया? किसकी नज़र लग गयी ... आज की शाम
वर्षों साथ रहने का वायदा
पल में टूटा
कभी न जुदा होने वाला
हाथ हाथ छूटा
सपनों की लड़ी बिखरी
सपना टूटा
देखते-देखते भाई से बिछुड़ी बहना
बाप से जुदा हुआ बेटा
कई मों की गोदें हुईं खाली
कई सुहागनों का सिन्दूर लुटा
शान्ति के इस शहर में किसने ये आग लगाई
ये कौन है ? मुझे भी तो बताओ भाई ... मुझे भी तो बताओ भाई ... आज की शाम
Wednesday, January 14, 2009
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Bahut hi marmik par aaj ke kadve yatharth ko dikhane vali kavita hai Parashar ji, esi sunder rachana ke liye badhai!!
ReplyDeletesneh
shailja