Tuesday, December 30, 2008

हाय रे पुरस्कार

हाय रे पुरस्कार

जैसे ही खबर आई कि हिन्दी के एक जाने माने गुमशुदा कवि, लेखक, आलोचक को दिल का दौरा पड़ने के बाद हस्पताल में भर्ती किया गया है; सुनते ही प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सीधे हस्पताल की ओर दौड़ पड़े।
पहुँचते ही आदत के अनुसार उन्होंने सवालों की झड़ी लगानी शुरू कर दी। कब? क्यों? कैसे?... आदि आदि। तभी एक रिपेार्टर ने सवाल किया...
“दिल का दौरा पड़ने का कोई खास कारण?”
भीड़ में एक नेतानुमा ’कम’ सहित्यकार दिखने वाले व्यक्ति ने तुरन्त जवाब दिया....
“शायद साहित्यिक पुरस्कारों से वंचित रहना....।”
“ये क्या बेहूदा जवाब है, प्रश्नकर्ता ने इसे घूरते हुए कहा।
“ये बेहूदा नहीं बिल्कुल सही और सटीक उत्तर है जनाब। जैसे अचेतन के लिए चेतना में लौटने लिए साँस, मृतक के लिए प्राण, खुजली वालों के लिए नाखून व गंजेपन वालों के बाल आ जाने पर जैसे उनके चेहरों पर रौनक़ आ जाती है, वैसे ही लेखक, कवियों के लिए पुरस्कार व पुरस्कारों की घोषणायें उनके जीवन में संजीवनी का काम करती हैं।“

भाषण की मुद्रा में आते ही महाशय शुरू हो गये और कहने लगे, “अब देखिये ना जैसे आप सभी जानते है कि आदमी एक “सोशल” प्राणी है। उसे अपने प्राणों की आहुति देकर भी समाज में उसको औरों से हटकर, अपना एक विशेष ओहदा बनाना भी ज़रूरी हो जाता है, जिसे हम ’सोशल स्टेटस’ के नाम से जानते हैं। ये ’सोशल स्टेटस’ भी कभी-कभी अच्छों-अच्छों की ऐसी-तैसी करके छोड़ देता है। उदाहरण के लिए किसी बड़े आदमी के ’फन्कशनों’ में अगर फिल्मी हस्तियाँ ना आयें, खासकर विपाशा वासू - बीड़ी जलाये ले वाले गाने में जो अपने जलवे व ठुमकों को न दिखाये और न लगाये, तब तक वहाँ पर आये महमानों पर उस परिवार का रोब नहीं पड़ता। ठीक इसी तरह कोई भी लेखक-कवि चाहे कितना ही बढ़िया या कितना ही अच्छा क्यों नहीं लिखता हो; उसकी तब तक पूछ नहीं होती जब तक उसे पुरस्कार न मिले या उसे नवाजा न जाय। ये पुरस्कार भले ही कैसे भी हों, कैसे करके भी मिले हों, चाहे अपना ही काला धन सफेद करके सही... . हू केयरस.....!”
देखा जाए तो आज के जमाने में पुरस्कार पुरस्कार न हो कर नेपाल के पदच्युत नरेश के ताज की तरह हो गया, जिसे जब चाहिए कोई भी पार्टी छीन झपट कर पहन ले। पुरस्कार तो केवल अब दिखावा मात्र रह गया है। अब तो एक और चलन भी निकल पड़ा है कि मंचों से व्यक्ति स्वयं यह कहता सुना जा सकता है कि “आप की अनुकम्पा से मुझे ये पुरस्कार मिला... वो पुरस्कार मिला”। अपने आप हथियाये गये पुरस्कारों की एक लम्बी लिस्ट पढ़े बिना नहीं रहता। कभी-कभी तो यह भी पता नहीं लगता कि किसको कौन सा पुरस्कार मिला था। वो तो तब पता चलता है जब उनके मरने के बाद उनकी श्रद्धांजलि में आये लोग उनके बारे बताते हैं।
मेरे मकान के साथ लगे चौथे मकान पर हिन्दी के एक अच्छे लेखक रहते हैं। उन्होंने हिन्दी की बड़ी सेवा की है। मैंने जान बूझकर जाने-माने नहीं लिखा क्योंकि उनको जानते तो सब है पर साहित्यि क्षेत्र में रहने वाले उन्हें पहचानते नहीं।
जब भी पूछो ’कैसे हो’? ’क्या हो रहा है’? तो उनका नपातुला जवाब होता है, “जीवन के अतिम पड़ाव में हूँ बस लिखे जा रहा हूँ।“ एक रोज़ मैंने पास जाकर उनकी दुखती रग पर हाथ रख कर पूछ ही लिया... “आपने तो ज़िन्दगी भर लिखा है। अपनी माँ-बोली की सेवा की है। इसके एवज़ में आप को कोई पुरस्कार-उरूस्कार मिला भी या नहीं...?” पुरस्कार का ज़िक्र आते ही वो आसमान की ओर निहारने लगते हैं। पल भर के बाद स्वयं से कहते हैं...
“हाँ पुरस्कार... अभी तो नहीं... देखें... क्या पता मरने के बाद नसीब हो।”
कह कर अन्दर चले जाते हैं। पुरस्कार न पाने की पीड़ा की झलक उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती है। यहाँ पर मैं एक बात साफ कह देना चाहता हूँ कि उन्होंने इस पुरस्कार को लेकर कभी भी कोई शिकायत नहीं की और नहीं कभी पाने की कोशिश की।
ये कवि महोदय रोज़ की तरह आज भी सुबह २ अखबार पढ़ रहे थे जिसमें समाचार कम, हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती की खबरों से तकरीबन-तकरीबन सारा अखबार भरा पड़ा था। वैसे वो इस तरह की खबरों से वाकिफ तो थे परन्तु एक ऐसी खबर ने उनका ध्यान अपनी ओर खेंचा जिसे वो पढ़े बिना रह ना सके। जिसमे सुर्खियों में लिखा था –
“एक विदेशी प्रवासी को उनके हिन्दी में योगदान देने के लिए एक बड़ा पुरस्कार दिया जायेगा।”
उनका माथा ठनका सोचने लगे “विदेशी......वो भी प्रवासी...” ये बात जम नहीं पा रही है। माना विदेशी... वो तो ठीक है ऊपर से ये प्रवासी क्या मतलब या तो विदेशी कह लो या फिर प्रवासी ही। थोड़ा और अन्दर झाँक कर पढ़ा तो पता चला इनके दादा के दादा भारत से काफी अर्सा पहले भारत को छोड़कर विदेश गमन कर गये थे, याने तीन चार पीढ़ियाँ गुज़रने के बाद इनके पीछे ये प्रवासी शब्द कहाँ से आ टपका।
अरे भाई उनके पीछे अगर प्रवासी वाला शब्द न जोड़ा जाता तो उनको पुरस्कार कहाँ से मिलता। थोड़ा दिमाग लगायें ना...... ऐसा दिमाग सब के पास नहीं होता। किसी-किसी के पास होता है खासकर उनके पास; जो चाटुकारिता में प्रवीण हो या जिसकी घुसपैठ अन्दर तक हो या साँठ-गाँठ में जो एक दम अव्वल हो। इस तरह के पुरस्कार की चाबी भी इन्हींके पास होती है। इतना माथा पच्ची करने के बाद तब जाके इन कवि जी के दिमाग में बात आई कि ऐसा सम्भव हो सकता है।
अधिकतर देखने में आया है कि पुरस्कार, वो भी हिन्दी के और हिन्दी के नाम पर ज्यादा विदेश में रहने वाले ही खींचकर ले जाते हैं। असल में हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए ये प्रवासी अधिक काम कर रहे हैं, बस वहाँ पर बसे चन्द एक लोगों को छोड़कर। ये भारत के लोग भी मानते है लेकिन क्या करें? अपनी खीज मिटाने के लिए वो इन पर प्रवासी का लेबल लगा कर एक लक्ष्मण रेखा खींच लेते हैं ताकि कोई उनकी सीमाओं में आकर सेंध ना लगा सके।
जो जिस दर्द का मारा होता है, उसे उस दर्द का ज्ञान होता है, वो उसकी पीड़ा को भली भाँति समझ सकता है। यहाँ भी तो यही हो रहा है। कवि जी फिर सोचने लगे.. “पुरस्कार... कौन सा?... किस नाम से?... किस के द्वारा?... कितने का?... आजकल लाख दो लाख का लगता है जैसे १०-२० रूपये का हो। ऐसे पुरस्कार पाने वाले और देने वालों की सख्या भी हज़ारों लाखों में पहुँच गई है। ये पुरस्कार, पुरस्कार न होकर रेबड़ी हो गई है।
भाई कवि है तो... ज़ाहिर है कवि को कवि से जलन नहीं होगी तो क्या मिरासी से होगी? सीधी सी बात है इस प्रकार के पुरस्कार की घोषणा उनके आत्मसम्मान पर चोट नहीं है तो और क्या है?
फिर उनके ज़हन में एक सवाल कौंधा। ये महाशय अगर विदेश से है तो कौन से देश से है। क्या ये अमेरिका, कैनडा से है या यूरोप मिडलईस्ट या फिर वेस्टइन्डीज़ से, क्योंकि जहाँ तक पुरस्कारों का सवाल है तो यहाँ पुरस्कार भी उनको उनके देश के अनुसार ही दिया जाता है। जो जितने अमीर देश से होगा उसको उतना ही ऊँचा और महँगा पुरस्कार दिया जायेगा। चाहे उसने भले एक ही कविता क्यों नहीं लिखी हो या एक छोटी पत्रिका निकाली हो। अरे भाईजान! इसमें उनकी नाक का भी तो सवाल होता है ना... थोड़ा सोचो यार... याने पुरस्कार का रेट कवि व उसके देश को ध्यान में रखकर पहले से तय किया होता है; ठीक हमारी पोलिटिकल पार्टीयों व सरकार कि तरह.. किस को पद्मश्री देनी है और किसे नहीं।
खबर में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई। वो उसको बड़े गौर से पढ़ने लगे थे। पढ़ते २ सोचने लगे कि आखिर ये पुरस्कार उन्हें किस विधा पर दिया जा रहा होगा कविता, गीत, लेख आलोचन आलेख या फिर टी. वी. सीरियल पर। ऐसा कुछ भी तो नहीं लिखा था।
हाँ... सीरियलों का ज़िक्र आया तो आजकल जिसे देखो हाथ में मोबाईल, बगल में एक फाईल दबाये, चार आदमियों के बीच ऐसे दिखावा करते हैं कि जैसे जाने कितने व्यस्त हों और पूछो तो कहना शुरू कर देंगे कि फलाँ सीरियल लिख रहा हूँ। फलाँ फ्लोर में है। चार-पाँच पर बातचीत चल रही है। देखा जाय तो ये लोग हिन्दी के लेखकों से कहीं अच्छे हैं। नाम का नाम हो रहा है और ऊपर से दाम के दाम कूट रहे है। सरकार को चाहिए इनके लिए अलग से एक नया पुरस्कार शुरू करे जैसे टी. वी. साहित्य शिरोमणी। पर्दा-ए-पकड़। छोटे पर्दे का बड़ा बादशाह। शाहनशाहे कलमे आज़म.. आदि आदि।
मेरे देश में इन पुरस्कारों को लेकर अगर बहस की जाए तो कई लोग इस विषय पर पीएच. डी. ले सकते हैं। अब फिर सवाल उठता है कि पीएच. डी. व पुरस्कार भी बिना लॉबी े जुड़े तो मिलने से रहा। आप लैफ़्ट से जुड़ना चाहेंगे या राईट से। वेसे लैफ़्ट में ज्यादा फ़ायदा है क्योंकि इतिहास गवाह है और समय साक्षी... आज तक जितने भी पुरस्कार मिले हैं उनमें लैफ़्ट से जुड़ने वालों को अधिक मिले हैं। यकीन नहीं होता तो लिस्ट उठाकर देख लें। पर इन कविजी का क्या होगा जो ना तो लैफ़्ट से है और ना राईट से। ये बेचारे तो सीधी-सादी विचार धारा से जुड़े हैं।
लॉबी की बात आई तो मेरे देश में इन दो लॉबियों के साथ-साथ विदेश लॉबी का भी बड़ा हाथ है। विदेशी लेखक हो और उस के पीछे विदेशी लॉबी ना हो ये कैसे हो सकता है? यहाँ के लेखकों के पास अपने प्रचार-प्रसार के प्रयाप्त साधन और सुविधायें हैं। पैसा है, ई-मेल है जिसके द्वारा वो भारत जैसे गरीब देश से किसी भी पुरस्कार को हथियाने का मादा रखता है।
... पुरस्कार, विदेशी प्रवासी की उधेड़ बुन से ज़रा फुरसत मिली थी कि फिर सोचने लगे काश कोई संस्था उन्हें भी पुरस्कार दे देती तो कम से कम वो चैन से मर तो सकते हैं, वरना उनकी ये हरसत उनके साथ ही चली जायेगी। तभी दरवाजे की घंटी बज उठी, दरवाज़ा खोला तो सामने एक व्यक्ति बगल में फाइल और कान पर मोबाईल लगाये खड़ा था। वो उनके लिए अपरचित थे सो कवि जी ने पूछा...
“जी कहिए... किस से मिलना है?”
उत्तर मिला... “जब आपके घर आये हैं तो ज़ाहिर है आपसे ही मिलना होगा, आप हेमंती नदंन देवकीनन्दन ’पीड़ित’......?”
“जी...”, सर हिलाते हुए उन्होंने कहा फिर उससे मुखातिब होकर कहने लगे, “पर मैंने आपको पहिचाना नहीं... ...।“
सामने खड़े व्यक्ति ने उत्तर दिया, “आप मुझे नहीं जानते; इस बात में इतना दम नहीं, दम इस बात में है कि कितने लोग आप को जानते है, सरदार मनमोहन जी को भारत का बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन मनमोहन जी किसको जानते हैं ये बात ध्यान देने की है, क्यों... मैं ठीक कह रहा हूँ ना...?” कवि जी से नज़र मिलाकर उसने जानना चाहा।
कविजी बोले, “वैसे तो ठीक है पर......।”
“पर क्या?... बैठने को नहीं कहोगे श्रीमान जी... ...?” कवि जी के पास उसे अन्दर आने का निमंत्रण देने के सिवा और कोई चारा बचा ही नहीं था। उन्होंने इशारे इन्हें बैठने को कहा। सोफे में धँसते हुए उन सज्जन कहा, “कमाल है साब... जाने भारतीय संस्कृति को क्या हो गया है, अतिथि द्वार पर है... न बैठने को कहा जाता है न पानी-वानी को... ... । जब से ये नये नये टी वी चैनल क्या आये हैं और बाहरी संस्कृति हमारे बेडरूम के अन्दर तक क्या घुस्सी... उसने रिश्तों की... संस्कारों की... अपने परायों की पहिचान ही बदल डाली। इस टी वी संस्कृति ने जब से घर-घर में सेंध क्या लगाई पारवारिक रिश्तों में दरारें पड़नी शुरू हो गईं। भाई-भाई को शक की नज़र से देख रहा है। देवरानी, जेठानी, शकुनी मामा के घर जा-जाकर रोज नई-नई चालें सीख कर आ रही हैं। मामा-भतीजा एक दूसरे पर वार करने के लिए घात लगाये बैठे है। चलिये सास-बहू का वही राग... वही पुराना लफड़ा... वही तकरारें तो ठीक हैं लेकिन हद तो इस बात की है कि उसी सीरियल में एक बहू... एक नहीं... दो नहीं... तीन नहीं चार-चार बार शादी करती है। हर एपीसोड में वो पति ऐसे बदलती जैसे साड़ी... ... कमाल है साब... और मज्जे की बात... इन सीरियलों में सब बूढ़े हो जायेंगे पीढ़ी बदल जायेगी पर वो बूढ़ी खुसड़ सास वैसी की वैसी कभी बूढ़ी होती ही नहीं। लगता है यमराज भी इन्हें ऊपर ले जाने में घबराता है कि अगर वो उन्हें जल्दी से ऊपर ले गया तो पता चला चैनलवालों ने हड़ताल कर दी कि आज के बाद कोई नहीं मरेगा। अगर ऐसा हो गया तो... सृष्टी का बेलंस बिगड़ जायेगा फिर यमराज को कौन पूछेगा... बेचारा यमराज......। गजब... साहब गजब... इन सीरियलों के लेखकों मानना पड़ेगा। इनकी खोपड़ी की दाद देनी होगी। कभी कभी सोचता हूँ इनका परिवार है भी या नहीं। इनके घरों में माँ-बाप, भाई-बहिन, दादा-दादी है भी या नहीं।“
“ सो तो ठीक है... पर आप...”, कविजी ने फिर कहा।
“अरे साहब हमारी छोड़िए... हमने सुना है कि आप कविता लिखते हैं इसके एवज में आप को क्या मिलता है...?”
“आनंद... मन को संतुष्टी... “, कवि जी ने उतर दिया।
“कितनी देर की ५ मिनट की... चलिए ७ मिनट की... उसके बाद क्या... फिर वही एकाकीपन। ज़रा गौर से सुनिए... मैं चाहूँ तो आप को एक नहीं कई पुरस्कारों से नवाज सकता हूँ। आपको और आपकी लेखनी को बन्द कमरे से बाहर लाकर एक नई पहिचान दे सकता हूँ। आपको देश विदेश की सैर करवा सकता हूँ।“
उसकी बातों को सुनकर मन ही मन में कविजी को लगा कि उनकी आखिरी ख़्वाहिश शायद पूरी होने वाली है। झिझकते हुए कवि जी ने कहा, “लेकिन आप करते क्या हैं?”
“यही तो करता हूँ... जो कह रहा हूँ। आप जैसे लोगों को समाज में आगे लाकर उन्हें सम्मानित कर ख़ुद भी सम्मानित होता हूँ।” फ़ाईल में से अखबार निकालकर दिखाते हुए बोले -
“ये देखिये..., ये विदेशी लेखक है। इन्हें मैं, विदेश में रहकर भी हिन्दी में विशेष योगदान देने पर भारत में पुरस्कार दिला रहा हूँ।“
“तो ये हैं वो...”, कविजी स्वतः सोचते २ अपने आपसे कहने लगे, “बड़ी ऊँची रक़म लगती है” वे बुदबुदाये।
“आपने कुछ कहा?” उस सज्जन ने पूछा।
“नहीं... नहीं... बस यों ही...”, कविजी ने झेंप मिटाते हुए कहा।
“अच्छा... अच्छा...”, सामने बैठे व्यक्ति ने कहा, “ये सब मेरा ही खेल है। मैं उन्हें भारत बुला रहा हूँ। यूँ तो ये इतने बड़े लेखक नहीं हैं पर... हाँ... सुनने में आया है कि ये एक छोटी-मोटी पत्रिका निकालते हैं। सम्पर्क बनेगा तो मैं भी इनके द्वारा विदेश जाऊँगा ना... ऐसे... करके ही तो लाईम लाईट में आया जाता है श्रीमान जी... कि... तू मेरी पीठ खुजला मैं तेरी। पुरस्कार तो एक बहाना रह गया है आपस में दलाली करने का।
“यद्यपि उनसे व्यक्तिगत रूप से मेरा कोई परिचय तो नहीं है पर पत्र व्यवहार के माध्यम से... अरे माफ कीजिए... ...... ई मेल से...”, रुक कर उन्होंने कहा, “पत्र चिट्ठी अब कहाँ...। जब से ये... ई-मेल का प्रचलन हुआ है। इसके आने के बाद सबसे बड़ा वज्र हमारे यहाँ के डाकखानों पर गिरा। डाकखाने अब तो उबासियाँ ले रहे हैं। पत्रों की बाट... जोहते २ उनकी आँखों की रौशनी भी जाती रही। इसके आस-पास मौन छाया रहता है जैसे इसकी नानी मर गई हो। सुनने में आया है कि अब वो अपना दर्द मिटाने के लिए पोस्ट आफिसों में चाय बेच रहे हैं।
“एक ज़माना था कैसे हम लोग चिट्ठियों का इन्तज़ार किया करते थे। जब पोस्टमैन आता था पूरा गाँव एक जगह इकट्ठा हो जाया करता था। जिसकी चिट्ठी आती थी उसके चेहरे पर क्या रौनक़ आ जाया करती थी। सारा गाँव तब एक-दूसरे के कितने करीब था और अब... जब से ये कम्बख्त ई-मेल आई है इसने बाप को बेटे से, पति को पत्नी से, भाई को भाई से, यानि पूरा परिवार को अपने ही घर में, अपने २ कमरों में बन्द कर कैद कर के रख दिया है।“
उनके भाषण पर विराम लगाते हुए कविजी ने फिर पूछा, “मुझे क्या करना होगा?”
“एक छोटा सा काम।“
“वो क्या?”
“वो क्या है कि... बड़े आदमियों के बड़े चोंचले तो आपने सुना ही होगा। मंत्री सिंहनाथ का नाम तो आपने भी सुना ही होगा... अरे वही जो कई सरकारी संस्थाओं के अध्यक्ष भी हैं, उनके बेटे की शादी है।... हमसे बोले भया... इस अवसर पर एक जोरदार सेहरा लिखवाकर लावो तो। हमने सबको टटोला। नज़र दौड़ाई पर आपकी लेखनी... के आगे कोई टिक नहीं पाया...। आपको याद दिला दूँ कोई हो ना हो पर... मैं... मैं तो आपकी लेखनी का कायल हूँ।... यूँ कहिए गुलाम हूँ। सो चला आया आपके पास। आपके पास कलम है तो हमारे पास रिश्ते में बाँधने की... अक्ल...। मैं मंत्री जी से आपके नाम की सिफारिश करूँगा कि इस साल के, जितनी भी उनके अन्तर्गत संस्थायें हैं, उनके तमाम पुरस्कार आपको ही मिलें।“
“पर मुझे करना क्या होगा?” कवि जी ने फिर पूछा।
“आपको कम सुनाई देता है शायद... ख़ैर... उम्र का तकाज़ा भी हो सकता है। आपको उनके लड़के की शादी के उपलक्ष्य में एक सेहरा लिखना होगा।“
ये सुनकर उनका चेहरा तमतमा उठा वो बोल उठे, “ये क्या बेहूदी बात कर रहे हैं आप? मैं हिन्दी का एक सिपाही हूँ कोई भड़ुवा नहीं! ध्यान रहे... मैं कवि हूँ, वो भी हिन्दी का...। किसी टी वी सीरियल का लेखक नहीं कि निर्माता ने कहा “ये करदो वो करदो और वो कहते फिरते हैं - हो जायेगा जैसे आप चाहते हैं”। मै बिकाऊ नहीं हूँ। मेरे भी कुछ उसूल हैं।“
“माना आप बिकाऊ नहीं हैं, ये भी माना आपके उसूल हैं लेकिन आज के ज़माने में ये सब किताबी रह गये हैं हक़ीक़त तो कुछ और ही है। बिना सिफारिश बिना तिकड़म भिड़ाये कुछ नहीं होता। ये विदेशी लेखक के पीछे प्रवासी लगाकर उसका इस्तेमाल कर रहा हूँ।“
कविराज ने उन्हें घूरते हुए कहा, “इसका अर्थ ये हुआ कि तुम मेरा भी इस्तेमाल करोगे?”
“तो इसमे हर्ज़ ही क्या है। इस संसार में हर चीज़ इस्तेमाल के लिए ही बनी है। आपका टेलेण्ट... मेरी खोपड़ी... मंत्री जी के रिसोर्सिस और प्रभाव ये सब इस्तेमाल के लिए ही तो हैं। इसके बिना गति भी तो नहीं है।“
ये सब सुनकर कविजी के अचानक हृदय में दर्द उठने लगा। चेहरे पर पसीना बहने लगा। समय की नाज़ुकता को देखते हुए उन सज्जन ने अपने मोबाइल से एमरजन्सी को फोन किया। जल्दी-जल्दी में कवि जी को अस्पताल पहुँचा दिया गया। बगल में था वो आदमी जो इस सब के लिये ज़िम्मेदार था। कवि जी बिना पुरस्कार लिए इस दुनिया से कूच कर गये... और वो विदेशी इस पुरस्कार को लेकर बड़े ठाठ से हवाई जाहज में बैठकर अपने देश रवाना हो गया। यात्रायें दोनों कर रहे थे एक संसार छोड़कर से हमेशा-हमेशा के लिए तो दूसरा अपने मुल्क में एक नई शुरूआत के लिए।
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Friday, December 26, 2008

जब भगवान ने भारत से चुनाव लड़ा


1
स्वर्ग लोक में लक्ष्मीजी सुबह सुबह हाथों में गर्म गर्म चाय की प्याली लिए विष्णु जी पास पँहुचीं। उस समय विष्णु जी शेषनाग की शैय्या में लेटे लेटे नींद का लुत्फ़ उठा रहे थे। निकट जाकर धीरे से बोलीं- "नाथ! उठिये, भोर हो गई है। तनिक आँखें खोलिए और ताज़ी ताज़ी ताजमहल चाय का आनंद उठायें।"
भगवान उठे। चाय की चुस्की लेते हुए उन्होंने लक्ष्मी जी से कहा- "क्या बात है इस चाय की! बाई दी वे कहाँ से है?"
"दार्जलिंग इंडिया से।" लक्ष्मी ने उत्तर दिया।
घूँट मारते मारते उन्होंने कहा- "कुछ भी कहो प्रिये, बड़ी उम्दा है।" पास में पड़े टी वी कंट्रोल को उठाकर ज्योंही किल्कि किया टेलीविज़न पर हिन्दोस्तान का भारत दूरदर्शन चैनल खुला, जिसमें "ब्रेकिंग न्यूज़" आ रही थी।
"ये आकाशवाणी का दूरदर्शन केन्द्र है। अब आप हेमवंतीनन्दन से समाचार सुनिये।"
भगवान जी लक्षमी जी से मुख़ातिब होकर बोले- "प्रिये! बोलता बहुत सुन्दर है ये बच्चा। बड़ा दम है इसकी आवाज़ में। या तो अमिताभ बच्चन की आवाज़ में है या फिर इसकी! क्यों?"
लक्ष्मी जी ने सिर हिलाकर उनका समर्थन किया। न्यूज़ चालू थी...
"संसद में प्रश्नकाल के दौरान प्रधान मंत्री घासीराम ने कहा लोकसभा के अगले चुनाव 3 महीने के बाद किये जायेंगे। जिसे सुनकर विपक्ष की नींदें उड़ गईं, क्योंकि वे इसके लिए तैयार नहीं थे।
जैसे ही टी वी पर लक्ष्मीजी ने चुनाव का ऐलान सुना, दौड़ कर टेलीविज़न का स्विच ऑफ़ कर के भगवान जी के पास आकर बोलीं- "नाथ आप इस शेषनाग रूपी सोफे पर लेटे लेटे थकते नहीं? आठों पहर टी वी देखते देखते बोर नहीं होते?"
विष्णु जी उनका अभिप्राय को नहीं समझे, बोले- "आपने टी वी क्यों बन्द किया? प्रिये! ख़्‍ाबरें आ रहीं थी, वो भी चुनाव की।"
"इसीलिए किया बन्द।" लक्ष्मी जी बोलीं-"अब ध्यान से सुनिए, हमारी मानिये तो आप कुछ दिनों के लिए भारत भ्रमण पर जाकर इस बार वहाँ चुनाव में खड़े होकर अपने भक्तों यानि मतदाताओं का उम्मीदवार बन कर उनका कल्याण करें।"
"मैं और चुनाव....! लक्ष्मी तुम सठिया तो नहीं गई!! ये कैसी बात कर रही हो?" कहते कहते फिर टी वी चालू कर दिया।
"क्यों क्या हुआ?" लक्ष्मी ने टोकते हुए कहा- "बन्द कीजिए टी वी को। हम आपसे कुछ कह रहे हैं..., आप यहाँ भी हर पल उठक-पटक, उसकी समस्या, इसकी समस्या को सुलझाते रहते हैं। ये भी किसी चुनाव से कम थोड़ा है? फिर वहाँ के चुनाव लड़ने से क्यों कतरा रहे हैं आप? यूँ भी हज़ारों करोड़ों लोग आपकी मूर्ती के आगे हाथ जोड़े आपसे कुछ न कुछ माँगते ही रहते हैं। अगर उन्हें पता चलेगा कि आप स्वयं धरती में उनका प्रतिनिधि बनकर उनके कल्याण के लिए चुनाव लड़ने आये हैं और चुनाव लड़कर उनकी सारी समस्याओं को दूर कर देंगे। उनके दुखों के संताप को हर कर जीवन में खुशहाली भर देंगे, तो मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि सारे के सारे वोट आपको ही पड़ेंगे।"
भगवान तनिक गंभीर होकर बोले-"प्रिये! कहीं तुमने सचमुच मन तो नहीं बना लिया है कि हम भारत में जाकर चुनाव लड़ें?"
लक्ष्मी ने अपने दोनों हाथों को जोड़कर भगवान जी को पास जाकर विनम्र भाव से कहा- "हे दीनानाथ! आपने हमारे हृदय की बात को बिन कहे ही समझ लिया। तभी तो संसार आपको अंतरयामी कह कर पुकारता है प्रभो! मेरी हाiर्दक इच्छा भी यही है कि आप वहाँ जाकर अवश्य चुनाव लड़ें।"
भगवान जी को काटो तो खून नहीं! धर्म संकट में फंस गये संकट मोचन! सोचने लग गये लक्ष्मी की बुद्धि को क्या हो गया?...
समझाते हुए कहने लगे- "देखो जिसे आप चुनाव समझ रही हो वो चुनाव नहीं महज़ एक धोखा है, छल है, फरेब है। मतदाताओं की भावनाओं से खेलकर अपना उल्लू सीधा करना है। उन्हें सब्ज़ बाग दिखाकर पाँच साल तक उनकी आशाओं को अपने पास गिरवी रखना है। समझ गई हैं आप...?" विष्णु जी जैसे पलटे तो देखा लक्ष्मी जी कान को फ़ोन लगाये किसी को नंबर मिलाने पर लगी हुई थीं।
’ये किसको मिला रही हैं आप....?"
"नारद जी को..." लक्ष्मी ने कहा और कहकर आसमान की ओर देखने लगी।
"लो कर लो बात। ये तो हमको भारत भेजकर ही दम लेगी, ऐसा लगता है।" कहते हुए धम्म से सोफे में धंस गये। इतने में लक्ष्मी जी ने फोन को एक कान से हटाकर दूसरे पे लगाते हुए कहा- "गुरुदेव प्रणाम...। आप शीघ्र ही यहाँ चले आयें...नहीं...नहीं... हमें कुछ नहीं सुनना है। आप तुरंत चले आयें।" बिना कुछ सुने फोन को खट से रख कर भगवान जी से कहने लगी- "हाँ, आप कुछ कह रहे थे, फरेब है धोखा है...।"
भगवान जी बोले- "मैं यह कह रहा था जो खेल आप खेलने की सोच रही हैं न... वो बड़ा कष्टदाय है। उसमें हमारे साथ-साथ आपके खानदान का भी कच्चा चिट्ठा खोला जायेगा। हमारे, आपके नाम व चरित्र पर उँगलियाँ उठा उठा कर लांछन लगाये जायेंगे।"
कौन लगायेगा लांछन? कौन उठायेगा उँगलियाँ। किसकी हिम्मत है जो ऐसा करेगा।" गुस्से में तपकर लक्ष्मी जी बोलीं।
"आदमी...प्रिये! आदमी!!। इस जंतु को आप नहीं जानती और न ही समझ पाओगी। बहुत ऊँची रकम है।"
वार्ता चल ही रही थी कि नारद जी ने प्रवेश किया- "नारायण! नारायण!! भगवन... कहिए कैसे याद किया।" भगवान जी ने लक्ष्मी की ओर इशारा करते हुए कहा- "इनसे पूछिए।"
"कहिए माते क्या आज्ञा है?" नारद जी ने कहा।
"हमने निर्णय लिया है कि त्रिलोकीनाथ इस बार भारत में होने वाले चुनाव में खड़े होकर चुनाव लड़ेंगे। आपको उनके चुनाव का सारा कार्य भार संभालना होगा। एक सलाहकार के रूप में आपको इनकी चुनाव रणनीति से लेकर पोस्टरबाज़ी तक सब देखना होगा।" लक्ष्मी जी ने समझाते हुए कहा।
"नारायण..., नारायण प्रभो... लगता है आपकी फ़जीयत होने वाली है। क्यों हमारी मिट्टी खराब करवाने में तुली हैं आप। वहाँ हमारी हार निश्चित है माते।"
"हार... कैसी हार। ये क्या कह रहे हैं ऋषीवर आप! हार.. वो भी तीनों लोक के अधिपति की! जिनके इशारों के बिना पत्ता तक नहीं हिलता उनकी हार।"
"आप सत्य कह रही हैं माते।" नारद बोले, "पत्ते तो नहीं हिलते मगर वोट जरूर रातों-रात इधर से उधर और उधर से इधर अवश्य गिर जाते हैं। जो सुबह तक अच्छा खासा जीतता रहता है दोपहर होते होते मुँह के बल औंधा होकर जमीन चाटता दिखाई देता है। वहाँ गiणत तो दो मिनट में गड़बड़ा जाता है माते।"
भगवान विष्णु ने नारद जी की बात का समर्थन करते हुए कहा- "लक्ष्मी नारद जी सत्य कह रहे हैं। पत्ते हमारे बस में ज़रूर हैं लेकिन वोट... वो हमारे बस से बाहर है। भारत में कुछ भी होना असंभव नहीं। वहाँ मतदाताओं का भेद पाना बहुत कठिन काम है। राकेट साइन्स जैसा है प्रिये राकेट साइन्स जैसा।"
"तभी तो नारद जी को आपके साथ भेज रहे हैं। भेद लगाने और लेने में संसार में इनसे बढ़कर है कोई?"
यह सुनकर भगवान तथा नारद एक दूसरे का चेहरा देखने लगे। मायूस होकर भगवान नारद से बोले- "हे सखे!..एक बार और ट्राई करो। क्या पता मान जाए।"
नारद जी बड़े विनम्र भाव से लक्ष्मी जी से कहने लगे- "माते! मनुष्य एक रहस्यमयी प्राणी है। इसका भेद ना तो उसके माता-पिता, ना भाई-बन्धु, ना सगे-सम्बन्धियों और ना ही उसकी स्वयं अर्धांगिनी को ही होता है। तो ऐसे में फिर भला हम कैसे उसका भेद मालूम करेंगे?"
लक्ष्मी जी तुनक कर विष्णु जी से कहने लगी- "देखिये! अगर आप इस चुनाव में भाग नहीं लेंगे तो हम अपने मायके चले जायेंगे फिर आप देखते रहियो.. हाँ...।"
भगवान ने उनके इस रूप को देख कर कहा- "डार्लिंग! ये आप कैसी बात कर रहे हैं..., आप जो चाहेंगी वैसा ही होगा।" नारद की ओर देखते हुए बोले- "सखे! प्रस्थान की तैय्यारियाँ आरम्भ कीजिए।"
भगवान और नारद जी अपने अपने सूटकेस पैक करने में व्यस्त थे। इतने में लक्ष्मी हाथों में बाँसुरी लेकर वहाँ दाखिल होते हुए बोलीं-"नाथ! अपने साथ इसे भी रखना न भूलियेगा। मायूसी में आपका साथ देगी।" बाँसुरी को देते हुए ये कह कर वह चल दीं।
पुष्प विमान भगवान तथा नारद जी को लेकर स्वर्ग से सीधे मृत्युलोक की ओर चल पड़ा। भगवान नारद से बोले- "अब क्या होगा? मैंने महाभारत लड़ा। 18 औक्षणी सेना का सामना किया। उन्हें परास्त किया, तब भी मैं इतना विचलित व घबराया नहीं था जितना आज हूँ। नारद.. न जाने क्यों मेरा मन किसी अज्ञात मात के भय से काँप रहा है।"
नारद बोले- "भगवान! वो लड़ाई ..वो लड़ाई तो धर्म और अधर्म की थी। ये लड़ाई...ये लड़ाई तो वोट व नोट की है। झूठ की है, फरेब की है। बेइमानी की है, चाटुकारिता की है। लड़ाई तो लड़ाई है प्रभो!.. चाहे वो ईराक की हो या फिiल्स्तान की, जहाँ एक ओर आधुनिक तकनीकी हथियार-राकेट, मिसाईल, बाईलौजिक्ल वैपन, शिक्षित सैनिक और दूसरी ओर ना तो गोली ना बंदूक, केवल पत्थर के टुकड़े! फिर भी आपस में लड़े जा रहे हैं।"
भगवान ने नारद की बात को बीच में ही काटते हुए कहा- "इराक पर ये कह कर हमला करना कि उसके पास बाईलौजिक्ल हथियार हैं, ये सरासर झूठ था। हमला करने के लिए दुनिया से झूठ बुलवाया। झूठ का सहारा लेकर हमला करना कहाँ का औचित्य है?"
नारद बोले- "भगवन्‌! अगर आप मुझे क्षमादान दें तो झूठ तो आपने भी बुलवाया था धर्मराज युधिष्ठर से महाभारत के युद्ध में।"
यह कहते-कहते धरती दिखाई दी। दोनों ने मनुष्य रूप धारण किया और चल दिये अपने लक्ष्य की ओर......।


आगे पडे .....

Wednesday, December 24, 2008

एक नज़र देखिये तो



भारतीय काल गणना

सिद्धांत जोतिषी को एस्टानोमी कहा जाता है ! इसके ग्रंथो में सूर्य ग्रन्थ एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है ! इसके प्रथम अध्याय में काल गणना का विस्तार से वर्णन हुआ है ! जो इस प्रकार से है
पृथ्वी सूर्य चंदर तथा नक्षत्रों की गति के अनुसार चार प्रकार के दिन होते हैं ! २४ घंटे के चकार को ( एक नक्षत्र के चकार अगले दिन पुनः क्रम को ) आहोरात्र कहते है !सूर्य उदय से लेकर अगले सूर्य उदय होने तक को सावन आहोरात्र कहते है !
३० नाक्षित्रक आहोरात्र का = १ महीना
३० सावन आहोरात्र का =एक सावन मास
३० तिथीओ का = एक चंदर मास
१२ नाक्षित्रक मास का = एक नक्षत्र मास
१२ सावन मास का = एक सावन वर्ष
१२ चंदर वर्ष का = एक चंदर वर्ष
१२ सौर मास का = एक दिव्या आहोरात्र होता है
३० दिव्या आहोरात्र का = एक दिव्यमास होता है
१२ दिव्यमास का = एक दिव्या वर्ष होता है
१ दिव्यवर्ष में जिसमे ३६० सौर वर्ष होते है
१२००० दिव्यावर्षो की ३६० चत्तुर्युगी होते है ( चत्तुर्युगी जो = ४३ लाख २० हज़ार वर्ष क होती है ( १ चत्तुर्युगी / महायुग में ४ युग होते है ! वो है कलयुग द्वापर त्रेता और सतयुग )

युगों की गणना....

कलयुग में १२०० दिव्यवर्ष होते है कलयुग क कुल काल ४ लाख ३२ हजार वर्ष का होता है जिसमे ३६ हज़ार वर्ष आदि संधि और ३६ हज़ार वर्ष अंत की संधि के होते है !
सतयुग में ४८०० दिव्यवर्ष होते है
हरयुग के सुरू और अंत में एक संधी होते है ! इन सभी युग में क्रमशः २०० ,४००,६००,तथा ८०० दिव्यवर्ष होते है
७१ महायुगों का एक मनवंतर होता है ! इसके सुरू और अंतमे एक संधि \ होती है जो एक सतयुग के बराबर होते है !
१४ या १५ मनवंतर संधियो का एक कल्प होता है
१ कल्प जो १००० महायुग के बराबर होता है
१ कल्प में ४ अरब ३२ करोड़ वर्ष होते ( ( एक कल्प की अबधि ब्रह्मा के एक दिन के बराबर होते है ब्रह्मा की उम्र १०० ब्रह्म वर्ष की है )
३० ब्रह्म आहोरात्र का एक ब्रम मास होता है
१२ ब्रह्म मास का १ बह्म वर्ष होता है
अभी ब्रह्मा की उम्र का आध भाग बिता है अभी तो उनकी उम्र का पहला कल्प है इस कल्प में ६ मंवत्र संधीय बीत चुकी है ! अभी तो कलयुग का २८ वा महायुग कलयुग चल रहा है ! कलयुग ३१०२ इ पू सुरू होआ अभी वर्तमान कल्प का १,९७,२९,४९,१११ वर्ष चल रहा है

पृथ्वी की रचना

ब्रह्मा को रचना करना में ४७,४०० दिव्यवर्ष लगे थे ! तभी सबंत सुरू होआ था उसके अनुसार अगेर गणना करे तो १,१५,५८,८५,१११ वा वर्ष चल रहा है

सुन बे हृदयविहीन प्राणी

आदमी को गधा कह लो, खोता कह लो, सुआर कह लो, कुत्ता कह लो सब चलेगा और वो किसी हद तक इन शब्दों को अपने जीवन में एक नहीं कई बार सुन चुका है बल्कि उसे इन शब्दों से कई बार पुकारा और बुलाया भी जाता रहा है ! वो किसी हद तक इन को सुनकर अपना संयम नहीं खोता लेकिन, अगर कोई उसे किन्नर से जोड़ता है तो, वो, उसे अपने स्वाभिमान और मनुष्य जात होने पर चोट समझता है अब सवाल उठता है की क्या किन्नर आदमी नहीं है ? इसका जबाब अगर कोई यू एन ओ से भी जाकर पूछे तो इसका उत्तर उनके पास भी नहीं होगा तो फिर वहाँ आप और मैं किस खेत की मूली है ! कभी अगर इसपर चर्चा चलती है तो कोई कहता है बेचारे हैं तो, कुछ कहते है वक़्त के मारे हैं ! कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि इनसे आदमी को ना तो कोई नुक्सान ही है और ना ही कोई फायदा ! आज जब दुनिया मतलबी हो गई है ! स्वार्थ सर चढ़कर बोलता है! भाई भाई का गला काट रहा है ! ज़रा ज़रा सी बात पर लोग एक दुसरे के खून के प्यासे है ! ये सब घटिया और घिनौने काम आदम ही करता है क्या कभी आपने सुना की किसी किन्नर ने अपने दूसरे किन्नर का खून किया हो ? उसने अपने भाई जात को मारा हो ? अरे, समय ने जिसे पहिले मारा हो वो भला किसे को क्या मारेगा ? मरने मारने की बात तो वो करता है जिसकी कोई चाह हो ! उसकी चाह पर तो पैदा होते ही अंकुश लगा दिये गए हैं ! वो तो आदम जात की किसी भी चीज़ से नफरत नहीं करता है और नहीं वो किसी पास पड़ोस वालों के लड़ाई झगड़े से सरोकार रखता है ! उसकी तो कोई सुननेवाला ही नहीं ! जिसे कुदरत ने भी सांसारिक अधिकारों से वंचित रखा फिर इंसान का क्या कहना ! सभ्यता के इस युग में उसे किसी भी क्षेत्र में कोई वोट देने या अपनी बात रखने का अधिकार नहीं है ... हाँ अधिकार है तो, केवल लोगों की जिल्लत खाने का .....सरे अपमानित होने का अभी हाल में भारत की राजधान देहली आतंकियों के आतंक से दहल ऊठी थी ! बम के धमाकों से सड़कों में खून से लथपथ बच्चे बूढ़े जवान स्त्री पुरुष दर्द से चीखते चिल्ला रहे थे ! उनमें से कुछ इस दुनिया को छोड़ चुके थे तो कुछ जीवन और मौत से संघर्ष कर रहे थे ! हस्पतालों में डॉक्टर के सामने सबसे बड़ी समस्या ये थी इन घायलों को कैसे बचाया जाय ! उन्हें खून की बहुत आवश्यकता पड़ रही थी ! इंसानियत के नाते उन्होंने जनता से अपील की कि आओ आगे बढ़कर अपना खून दें ! इस मार्मिक अपील से हस्पतालों के आगे लोगों का जमघट लगने लगा ! इस मुसीबत की घड़ी में हर आदमी आगे आया ! दयाभाव और हृदय तो सब में होता है चाहे वो किन्नर क्यों ना हो ? किन्नर लोग जब हस्पताल पहुँचे तो देखा सब एक लाइन में लगे हैं उन्हें देखकर उनको थोड़ा चैन आया वरना अगर दो लाइनें होतीं तो उनके सामने दुविधा होती कि वो किस लाइन (काश भारत के संविधान में इनके लिए कोई स्पेशल रूल होता) में जाकर खड़े हो ! प्रभु ने यहाँ पर उनकी लाज बचा दी जैसे उन्होंने द्रौपदी की लाज बचाई थी महाभारत में ! खड़े खड़े वो अपने बारी का इंतज़ार करने लगे ! जैसे ही उनका नम्बर आया डॉक्टर ने यह कहकर उनका खून लेने से मना कर दिया की वो किन्नर है .......... सुना था कि डॉक्टर भगवान् का रूप होता है अगर भगवान् ही ऐसा करने लगे तो ये बेचारे जाएँ तो जाएँ कहाँ ! अब भला डॉक्टर को कौन समझाए की पहिले तो इंसान है ! आदमी की जात का है ! उसमें भी वो सरे गुण भाव मौजूद हैं जो तुझ में, हम में, हम सब में हैं ! उसकी नसों में भी वही खून दौड़ता है जो तेरी की रगों में दौड़ रहा है ! और एक बात जिनका खून लेने से आप इनकार कर रहे हैं इनका एहसान तो आप दे ही नहीं सकते ! इनकी वजह से जिस भारत में आज आप डॉक्टर बने हो, ये ही हैं जो इस भारत को उस महाभारत के युग से बचाकर लाये ! अगर इनका जात भाई शिखंडी ने ठीक समय पर अर्जुन के रथ में उसके सामने खड़े होकर उसकी सहायता न की होती तो उस समय के अजय अमर अपराजय भीष्म पितामह की बाणों के आगे पांडव तो पांडव क्या कोई टिकनेवाला था ! ये ही लोग हैं जिनकी वजह से हम सब है वरना आज का इतिहास कुछ और ही होता ! अगर गौर से सोचो तो ऐसा करके डॉक्टर ने इनके विषय पर एक बहस शुरू कर दी ! जो बहुत पहिले हो जानी चाहिए थी ताकि इनके मुद्दे की तपन सियासत के गलियारे तक जा कर उन्हें झँझोड़ती तो सही जो अपने अंदर के आदमी में झाँककर इनके बारे में सोच पैदा करता ! जो राजनीति करते करते जिनका खून दोगला हो गया है ! काश कोई तो इनके बारे में आवाज़ उठाता ! कोई तो ऐसा कानून बनता जो इन्हें किसी हाशिये पर लाकर खड़ा कर सकता।

Saturday, December 20, 2008

बॉर्डर क्रासिंग: एक लफड़ा .....

बॉर्डर क्रासिंग: एक लफड़ा पाराशर गौड़

सारांश:- अमेरिका ने जब इराक पर आक्रमण किया तब कनाडा ने उसके इस युद्ध में भाग लेने से इन्कार कर दिया। एक मामले में उसका साथ नहीं दिया, साथ न देने पर अमेरिका कनाडा से बुरी तरह नराज़ है और तब से खिसियाया हुआ है कि जब जहाँ हो उससे बदला लिया जाये। बॉर्डर क्रासिंग इसका ताज़ा उदाहरण है।
पात्र: कस्टम अधिकारी (अमेरिका)
दो यात्री - 1, 2 (कनेडियन)
समय:दिन का।
स्थान: नियाग्रा फ़ाल, पीस ब्रिज
( पर्दा खुलता है, मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश उभरता है। एक मेज़-कुर्सी - उस पर कस्टम अधिकारी बैठा हुआ है। पार्श्‍वध्वनि में गाड़ियों की आवाज़ें उभरती हैं)

अधिकारी:(ऊँची आवाज़ में) नेक्स्ट प्लीज़!
(दो यात्री उसके पास जा कर अपने ’पहचान पत्र’ देते हैं। अधिकारी उन्हें उलट-पलट कर देखते हुए)
"-- ये फोटो आपकी ही है?"
यात्री 1: "जी हाँ, मेरी ही है।"
अधिकारी: (गौर से देखने के बाद)- "लगती तो नहीं..., लगता है फ़ोटो पुरानी है।"
यात्री 1: "पुरानी नई से क्या होता है- चेहरा तो वही है।"
अधिकारी: "मैं चेहरे की नहीं.. फ़ोटो की बात कर रहा हूँ मिस्टर - (सिटिज़नशिप के कार्ड को देखने के बाद- व्यंग से) ..हम्र ..तो आप कनेडियन सिटिज़न भी हैं।
यात्री 1: "आपको क्या लगता है?" (नाराज़गी के भाव से)
अधिकारी: "पूछ ही तो रहे हैं भाई, पूछने में पैसे लग रहे हैं क्या? आपके ज्ञान के लिए बता दें कन्फ़र्म करना हमारा काम है.. क्या समझे!"
यात्री 1: (कन्धे उचका कर) ओके... ओके..!
अधिकारी: ( उसको देखकर) "क्या बात है.. कन्धे क्यों हिला रहे हो.. कोई तकलीफ़ है?"
यात्री 1: "नहीं, नहीं.. ऐसी कोई बात नहीं।
अधिकारी: "क्या नाम है?"
यात्री 1: "उसमें लिखा तो हुआ है।"
अधिकारी: "मैं आपसे पूछ रहा हूँ!"
यात्री 1: जी, बिन.... मिस्टर बिन।
अधिकारी: ओ बिन! लास्ट नेम ’लादेन’ तो नहीं!
यात्री 1: जी नहीं, विनय शर्मा है - विनय शर्मा! (नाराज़ होकर)
अधिकारी: देखिए मिस्टर नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं। हमारा काम है पूछना - आपका काम है जबाव देना। क्या समझे?
यात्री 1: जी, समझ गया!
अधिकारी: कहाँ जा रहे हो?
यात्री 1: न्यूयार्क!
अधिकारी: न्यूयार्क...! (एक साँस में कहता है) किसके पास - और क्यों, जा रहो हो तो क्यों जा रहे हो, कारण क्या है जाने का, कब तक लौटोगे? लौटने का इरादा है... या नहीं। अगर है तो कब तक? अगर नहीं तो क्यों? नाम, पता - फ़ोन नम्बर... क्या काम करता है? करता भी है या नहीं करता आपका क्या लगता है?
यात्री 1: जी - दोस्त-
अधिकारी: अकेला है या शादी-शुदा?
यात्री 1: अब तक तो अकेला था, अब शादी होने वाली है। उसी में जा रहे हैं।
अधिकारी: आपकी हुई...?
यात्री 1: जी नहीं।
अधिकारी: क्यों? क्यों नहीं हुई अब तक... क्या कारण है अब तक कुँवारे हो?
यात्री 1: बस यों ही।
अधिकारी: नहीं - नहीं, कोई न कोई कारण तो होगा इसके पीछे, जो अब तक शादी नहीं की। कोई साजिश तो नहीं?
यात्री 1: ये कैसी बातें कर रहें हैं आप?
अधिकारी: बात-, बात हम समझाते हैं। आजकल बम्ब नहीं, ह्यूमन बम्ब ज्यादा फूट रहे हैं जगह-जगह। वे - सब कंवारे थे, इसीलिए पूछ रहे हैं। और फिर शक करना हमारा काम ही है क्यों?
यात्री 1: एक बात कहें..।
अधिकारी: बोलो-बोलो!
यात्री 1: आप जो पूछें, जो भी करें - पर करें ज़रा जल्दी- वो क्या है कि धूप में बुरा हाल हो रहा है!
अधिकारी: लो -, करलो बात! अरे भैय्या, तुम्हें क्या लगता है, हम झक मार रहे हैं, भाई- पूछ रहे हैं, चेक कर रहे हैं और क्या कर रहे हैं। ये देखो, इधर देखो, ये मैडल ऐसे ही नहीं मिले हैं, कुछ करके मिले हैं। (अचानक दूसरे यात्री को देखकर)
-ये कौन है आपके साथ।
यात्री 1: दोस्त।
अधिकारी: केवल दोस्त या और कुछ भी?
यात्री 1: (आश्चर्य से) क्या मतलब?
अधिकारी: बतायेंगे-बतायेंगे, मतलब भी बतायेंगे। कहाँ से आ रहे हो?
यात्री 1: टोरोंटो से।
अधिकारी: --टोरोंटो से!
यात्री 1: क्यों?
अधिकारी: अरे भाई! तुम्हारे इस टोरोंटो ने हमारा जीना हराम कर रखा है।
यात्री 1: वो - कैसे?
अधिकारी: पिछले एक महीने से, हमारे इधर से गाड़ी में दो आदमी सुबह ऐज़ ए फ़्रैन्ड जाते हैं, जब शाम को लौटते हैं तो बतौर पति-पत्नी के... है ना समस्या...। इसीलिए हमने आपके मित्र के बारे में पूछा कि वो केवल मित्र ही है या कुछ और... समझ गये मियाँ - वैसे आप दोस्त ही हैं ना।
यात्री 1: जी हाँ... हम केवल दोस्त ही हैं बस...बस...।
अधिकारी: माना आप दोस्त ही हैं.. लेकिन हम.. कैसे मान लें कि आप केवल दोस्त ही हैं.. कोई प्रूफ़ है आपके पास।
यात्री 1: प्रूफ़-। प्रूफ़ तो यही है कि हम दोस्त हैं तो हैं।
अधिकारी: थोड़ा सोचिए। विश्वास करने में समय तो लगेगा ही, है ना। एक तो आप कनेडियन हैं.. कनेडियन सिटिज़न भी हैं। उपर से टोरोंटो से आ रहे हैं। साथ में और कोई भी नहीं, केवल दो आदमियों के। अब आप ही बताईये ऐसे में हमारा शक्की होना बनता है कि नहीं...(कुछ सोच कर) आप यहीं ठहरें.. मैं अभी चेक करके आता हूँ।
(अधिकारी जाता है यात्री-2, यात्री-1 को कहता है)
यात्री 2: यार! लगता है, ये आज हमारा पोस्टमार्टम करके ही छोड़ेगा। ऊपर से ये गर्मी..., उफ़्‍फ़..! (इतने में अधिकारी आ जाता है)
अधिकारी: वैसे तो.. सब ठीक है लेकिन, आप लोगों के हाथों में अंगूठी देखकर थोड़ा शक सा हो रहा था...!
यात्री 1: देखिए, आपने जो पूछना है पूछिए - जो चेक करना है कीजिए - लेकिन हमें और हमारी ज़ाती ज़िन्दगी में झाँकने का आपका कोई हक नहीं है।
अधिकारी: बड़े तप्पे लग रहे हो - सुनो मिस्टर। हम अमेरिका वाले आपकी इस बात को आपकी धमकी समझें या....।
यात्री 1: (बात की नाजुकता को जानते हुए) अरे... नहीं, नहीं ऐसा नहीं जैसा आप सोच रहे हैं। मेरा मतलब वो बिल्कुल नहीं..।
अधिकारी: (गाड़ी की ओर देखकर रौब से) ये गाड़ी किसकी है।
यात्री 2: जी, मेरी!
अधिकारी: कागज़ हैं?
यात्री 2: (देते हुए) ये लीजिए।
अधिकारी: (मुयाना करते हुए) ये बम्पर कैसे मुड़ा?
यात्री 2: जी, भाई ने ठोक दी थी।अधिकारी:ठोक दी,या कहीं चोरी-उचक्की करते हुये ठुक गई! (पेपर और गाड़ी के नम्बर को मिलाकर देखते हुए अचानक)
अरे... ये नम्बर तो जाना-पहचाना लगता है।
यात्री 2: वो - कैसे?
अधिकारी: लो - करलो बात। हम यहीं पर यों ही नहीं बैठे हुए हैं। सरकार -हमें यों ही खांमख़्‍वाह पैसे नहीं देती। ये देखें... ये नम्बर आपका ही है ना!
यात्री 2: हाँ - नम्बर तो मेरा ही है।
अधिकारी: (पेपर घुमाकर) डब्लयू एच ज़ेड - जे 123 - (आश्चर्य से) ओ.. नो!!
यात्री 2: (घबराकर) क्या हुआ? दरअसल हम , डब्लयू एच ज़ेड जे 132 की तलाश में है।
यात्री 2: (आकाश की ओर हाथ जोड़ते हुए) थैंक्स गॉड!
अधिकारी: क्यों? क्या हुआ?
यात्री 2: जी, कुछ नहीं!
अधिकारी: ट्रंक खोलो।
यात्री 2: ट्रंक में कुछ नहीं है।
अधिकारी: जब मैंने कहा - खोला, तो खोलो।
यात्री 2: (ट्रंक खोलकर) ये लीजिए..। (अन्दर झाँककर कूलर को देखकर) इस कूलर में क्या है?
यात्री 2: जी, कुछ नहीं - केवल खाने-पीने का सामान और एक दो बियर - बस -!
अधिकारी: (खोलकर) ये क्या है..? स्टेक है।
अधिकारी: नहीं, नहीं, - ये तो नहीं जायेगा - ये जा ही नहीं सकता! इसे तो आप नहीं ले जायेंगे।
यात्री 2: क्यों?
अधिकारी: मैड काऊ का लफड़ा है.., इसकी तो जाँच होगी।
यात्री 2: लेकिन ये तो ’डियर’ का है।
अधिकारी: डियर का हो या काऊ का- है तो स्टेक ही ना...। क्यों, क्यों और वो भी कनेडियन - नो, नो हम कनेडियन पर भरोसा नहीं कर सकते!
(गाड़ी का दरवाज़ा खोल कर अन्दर झाँकता है)
इसमें से तो पॉट की बदबू आ रही है।
यात्री 2: नहीं- इसमें कोई पॉट-वॉट नहीं और ना ही इसमें कुछ ऐसा है।
अधिकारी: सुनो! तुम हर बात में नहीं-नहीं कर रहे हो और एक-एक करके सब निकल रहा है। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, उस पॉट को निकाल कर बाहर रखो!
यात्री 2: अरे होता तो रखते - स्वीयर टू गॉड! हमारे पास कुछ नहीं है।
(इस दौरान अधिकारी चीज़ें ढूँढता रहता है। थैला देखकर)
अधिकारी: इसमें क्या है?
यात्री 2: जी - फल हैं।
अधिकारी: इसे भी नहीं ले जा सकते। लेकिन क्यों?
अधिकारी: ये तो मिनीस्टर ऑफ़ एग्रीक्लचर से पूछना पड़ेगा!
(उसे कूड़े में डालता है)
यात्री 2: ये आप क्या कर रहे हैं?
अधिकारी: (रौब से) देखो! सरकारी काम में रुकावट करोगे तो नतीजा जानते हो, क्या होगा? (दोनों मुँह लटका कर खड़े हो जाते हैं। गर्मी के कारण पसीना-पसीना होते हैं। यात्री-1: रुमाल निकाल कर पसीना पोंछता है)
क्या बात है तुम दोनों को पसीना क्यों आ रहा है - (याद करके .. ’सार’ के बारे में)
अधिकारी: ओ.. नो! ओ... नो! ओ.. माई गॉड!! तभी तो कहूँ कि इतना पसीना क्यों आ रहा है तुम्हें। (जेब से निकाल कर दस्ताने पहनता है मुँह पर कपड़ा लगाता है।)
यात्री 1: ये क्या बक रहे हैं आप - ऐसा कुछ नहीं है। आप बे-बात का बतंगड़ बना रहे हो। गर्मी के मारे बुरा हाल है और ऊपर से आप ’सार’ की बात थोप रहे हैं।
अधिकारी: अरे थोप नहीं रहे हैं - तुम्हें है!! तो फिर तुम्हें इतना पसीना क्यों आ रहा है?
यात्री 1: गर्मी के कारण।
अधिकारी: कारण कुछ और भी तो हो सकते हैं। हम कैसे मान लें कि तुम्हें पसीना गर्मी की वज़ह से ही आ रहा है..?
यात्री (दोनों): ...वी लीव यू.एस.
अधिकारी: आप दोनों उधर - उधर खड़े हो जायें। (जेब से पेन पेपर निकालते हुए, पूछता है-) - तुम्हारा फ़िज़िकल चेक-अप होने से पहले जो मैं पूछता हूँ उसका सही-सही जबाव दो।
-- इस दौरान तुम किसी हॉस्पीटल गये।
यात्री 1: जी नहीं।अधिकारी:घर में, रिश्ते में कोई नर्स-वर्स है जो हॉस्पीटल में काम करती हो।
यात्री 2: जी नहीं।
अधिकारी: किसी ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आए हो जिसे सार हो या होने की आशंका हो।
यात्री 1: जी नहीं।
अधिकारी: किसी ऐसे जन समारोह में गये हो जहाँ सार वाले हों।
यात्री 2: जी नहीं।
अधिकारी: ठीक है। आप उधर खड़े रहें मैं अपने बॉस से पूछता हूँ। (सेल-फ़ोन निकालकर)
हेलो,- जिम- सुनो, मुझे लगता है कि यहाँ सार वाले कई लोग लाइन में खड़े हैं जिन्हें पसीना आ रहा है। उनका पूरा चेक-अप करना होगा।
(जिम की आवाज़):यस यू आर राइट। मैं अभी पी.ए.से अनाऊंस करता हूँ--
अटेन्शन प्लीज़, अटेन्शन प्लीज़, कैनाडा से अमेरिका जाने वाले जितने भी यात्री हैं, जिन्हें पसीना आ रहा है, कृपया वो अलग लाइन में खड़े हो जाएँ-- तुरन्त! थैंक यू।
ये क्या लफड़ा है।अधिकारी: लफड़ा नहीं हक़ीकत - तुम तो जा ही नहीं सकते। तुम्हारे साथ एक नहीं कई लफड़े हैं। काऊ, सार, स्टेक, फल, पॉट और न जाने क्या क्या... सॉरी आप उधर... ओ ऊधर खड़े हो जाएँ।यात्री (दोनों):सुनिये... (इतने में लोगों का झुँड आता है जिसे अधिकारी धकेल रहा है। आवाज़ आती है--
- अरे मानते क्यों नहीं हमें सार नहीं !
- ये पसीना धूप का है!
- अरे सुनिए तो सही!
- आप इन्सान हैं या हैवान!
- ये तो सरासर ज्यादती है!
- आप पुलिस क्यों बनते हैं हर जगह - समझ नहीं आती!
धीरे धीरे लाइट बन्द होती है। एक आवाज़ उभरती है----
नेक्स्ट प्लीज़
जब अमेरिका ने इराक़ पर अटैक किया था तब कनाडा ने बुश को साफ़ कहा कि वो उसके साथ नही है बुश तब बहुत नाराज हुआ और उसने कनाडियनो को बेबात में तंग करना शुरू कर दिया


सारांश:- अमेरिका ने जब इराक पर आक्रमण किया तब कनाडा ने उसके इस युद्ध में भाग लेने से इन्कार कर दिया। एक मामले में उसका साथ नहीं दिया, साथ न देने पर अमेरिका कनाडा से बुरी तरह नराज़ है और तब से खिसियाया हुआ है कि जब जहाँ हो उससे बदला लिया जाये। बॉर्डर क्रासिंग इसका ताज़ा उदाहरण है।
पात्र: कस्टम अधिकारी (अमेरिका)
दो यात्री - 1, 2 (कनेडियन)
समय:दिन का।
स्थान: नियाग्रा फ़ाल, पीस ब्रिज
( पर्दा खुलता है, मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश उभरता है। एक मेज़-कुर्सी - उस पर कस्टम अधिकारी बैठा हुआ है। पार्श्‍वध्वनि में गाड़ियों की आवाज़ें उभरती हैं)

अधिकारी:(ऊँची आवाज़ में) नेक्स्ट प्लीज़!
(दो यात्री उसके पास जा कर अपने ’पहचान पत्र’ देते हैं। अधिकारी उन्हें उलट-पलट कर देखते हुए)
"-- ये फोटो आपकी ही है?"
यात्री 1: "जी हाँ, मेरी ही है।"
अधिकारी: (गौर से देखने के बाद)- "लगती तो नहीं..., लगता है फ़ोटो पुरानी है।"
यात्री 1: "पुरानी नई से क्या होता है- चेहरा तो वही है।"
अधिकारी: "मैं चेहरे की नहीं.. फ़ोटो की बात कर रहा हूँ मिस्टर - (सिटिज़नशिप के कार्ड को देखने के बाद- व्यंग से) ..हम्र ..तो आप कनेडियन सिटिज़न भी हैं।
यात्री 1: "आपको क्या लगता है?" (नाराज़गी के भाव से)
अधिकारी: "पूछ ही तो रहे हैं भाई, पूछने में पैसे लग रहे हैं क्या? आपके ज्ञान के लिए बता दें कन्फ़र्म करना हमारा काम है.. क्या समझे!"
यात्री 1: (कन्धे उचका कर) ओके... ओके..!
अधिकारी: ( उसको देखकर) "क्या बात है.. कन्धे क्यों हिला रहे हो.. कोई तकलीफ़ है?"
यात्री 1: "नहीं, नहीं.. ऐसी कोई बात नहीं।
अधिकारी: "क्या नाम है?"
यात्री 1: "उसमें लिखा तो हुआ है।"
अधिकारी: "मैं आपसे पूछ रहा हूँ!"
यात्री 1: जी, बिन.... मिस्टर बिन।
अधिकारी: ओ बिन! लास्ट नेम ’लादेन’ तो नहीं!
यात्री 1: जी नहीं, विनय शर्मा है - विनय शर्मा! (नाराज़ होकर)
अधिकारी: देखिए मिस्टर नाराज़ होने की ज़रूरत नहीं। हमारा काम है पूछना - आपका काम है जबाव देना। क्या समझे?
यात्री 1: जी, समझ गया!
अधिकारी: कहाँ जा रहे हो?
यात्री 1: न्यूयार्क!
अधिकारी: न्यूयार्क...! (एक साँस में कहता है) किसके पास - और क्यों, जा रहो हो तो क्यों जा रहे हो, कारण क्या है जाने का, कब तक लौटोगे? लौटने का इरादा है... या नहीं। अगर है तो कब तक? अगर नहीं तो क्यों? नाम, पता - फ़ोन नम्बर... क्या काम करता है? करता भी है या नहीं करता आपका क्या लगता है?
यात्री 1: जी - दोस्त-
अधिकारी: अकेला है या शादी-शुदा?
यात्री 1: अब तक तो अकेला था, अब शादी होने वाली है। उसी में जा रहे हैं।
अधिकारी: आपकी हुई...?
यात्री 1: जी नहीं।
अधिकारी: क्यों? क्यों नहीं हुई अब तक... क्या कारण है अब तक कुँवारे हो?
यात्री 1: बस यों ही।
अधिकारी: नहीं - नहीं, कोई न कोई कारण तो होगा इसके पीछे, जो अब तक शादी नहीं की। कोई साजिश तो नहीं?
यात्री 1: ये कैसी बातें कर रहें हैं आप?
अधिकारी: बात-, बात हम समझाते हैं। आजकल बम्ब नहीं, ह्यूमन बम्ब ज्यादा फूट रहे हैं जगह-जगह। वे - सब कंवारे थे, इसीलिए पूछ रहे हैं। और फिर शक करना हमारा काम ही है क्यों?
यात्री 1: एक बात कहें..।
अधिकारी: बोलो-बोलो!
यात्री 1: आप जो पूछें, जो भी करें - पर करें ज़रा जल्दी- वो क्या है कि धूप में बुरा हाल हो रहा है!
अधिकारी: लो -, करलो बात! अरे भैय्या, तुम्हें क्या लगता है, हम झक मार रहे हैं, भाई- पूछ रहे हैं, चेक कर रहे हैं और क्या कर रहे हैं। ये देखो, इधर देखो, ये मैडल ऐसे ही नहीं मिले हैं, कुछ करके मिले हैं। (अचानक दूसरे यात्री को देखकर)
-ये कौन है आपके साथ।
यात्री 1: दोस्त।
अधिकारी: केवल दोस्त या और कुछ भी?
यात्री 1: (आश्चर्य से) क्या मतलब?
अधिकारी: बतायेंगे-बतायेंगे, मतलब भी बतायेंगे। कहाँ से आ रहे हो?
यात्री 1: टोरोंटो से।
अधिकारी: --टोरोंटो से!
यात्री 1: क्यों?
अधिकारी: अरे भाई! तुम्हारे इस टोरोंटो ने हमारा जीना हराम कर रखा है।
यात्री 1: वो - कैसे?
अधिकारी: पिछले एक महीने से, हमारे इधर से गाड़ी में दो आदमी सुबह ऐज़ ए फ़्रैन्ड जाते हैं, जब शाम को लौटते हैं तो बतौर पति-पत्नी के... है ना समस्या...। इसीलिए हमने आपके मित्र के बारे में पूछा कि वो केवल मित्र ही है या कुछ और... समझ गये मियाँ - वैसे आप दोस्त ही हैं ना।
यात्री 1: जी हाँ... हम केवल दोस्त ही हैं बस...बस...।
अधिकारी: माना आप दोस्त ही हैं.. लेकिन हम.. कैसे मान लें कि आप केवल दोस्त ही हैं.. कोई प्रूफ़ है आपके पास।
यात्री 1: प्रूफ़-। प्रूफ़ तो यही है कि हम दोस्त हैं तो हैं।
अधिकारी: थोड़ा सोचिए। विश्वास करने में समय तो लगेगा ही, है ना। एक तो आप कनेडियन हैं.. कनेडियन सिटिज़न भी हैं। उपर से टोरोंटो से आ रहे हैं। साथ में और कोई भी नहीं, केवल दो आदमियों के। अब आप ही बताईये ऐसे में हमारा शक्की होना बनता है कि नहीं...(कुछ सोच कर) आप यहीं ठहरें.. मैं अभी चेक करके आता हूँ।
(अधिकारी जाता है यात्री-2, यात्री-1 को कहता है)
यात्री 2: यार! लगता है, ये आज हमारा पोस्टमार्टम करके ही छोड़ेगा। ऊपर से ये गर्मी..., उफ़्‍फ़..! (इतने में अधिकारी आ जाता है)
अधिकारी: वैसे तो.. सब ठीक है लेकिन, आप लोगों के हाथों में अंगूठी देखकर थोड़ा शक सा हो रहा था...!
यात्री 1: देखिए, आपने जो पूछना है पूछिए - जो चेक करना है कीजिए - लेकिन हमें और हमारी ज़ाती ज़िन्दगी में झाँकने का आपका कोई हक नहीं है।
अधिकारी: बड़े तप्पे लग रहे हो - सुनो मिस्टर। हम अमेरिका वाले आपकी इस बात को आपकी धमकी समझें या....।
यात्री 1: (बात की नाजुकता को जानते हुए) अरे... नहीं, नहीं ऐसा नहीं जैसा आप सोच रहे हैं। मेरा मतलब वो बिल्कुल नहीं..।
अधिकारी: (गाड़ी की ओर देखकर रौब से) ये गाड़ी किसकी है।
यात्री 2: जी, मेरी!
अधिकारी: कागज़ हैं?
यात्री 2: (देते हुए) ये लीजिए।
अधिकारी: (मुयाना करते हुए) ये बम्पर कैसे मुड़ा?
यात्री 2: जी, भाई ने ठोक दी थी।अधिकारी:ठोक दी,या कहीं चोरी-उचक्की करते हुये ठुक गई! (पेपर और गाड़ी के नम्बर को मिलाकर देखते हुए अचानक)
अरे... ये नम्बर तो जाना-पहचाना लगता है।
यात्री 2: वो - कैसे?
अधिकारी: लो - करलो बात। हम यहीं पर यों ही नहीं बैठे हुए हैं। सरकार -हमें यों ही खांमख़्‍वाह पैसे नहीं देती। ये देखें... ये नम्बर आपका ही है ना!
यात्री 2: हाँ - नम्बर तो मेरा ही है।
अधिकारी: (पेपर घुमाकर) डब्लयू एच ज़ेड - जे 123 - (आश्चर्य से) ओ.. नो!!
यात्री 2: (घबराकर) क्या हुआ? दरअसल हम , डब्लयू एच ज़ेड जे 132 की तलाश में है।
यात्री 2: (आकाश की ओर हाथ जोड़ते हुए) थैंक्स गॉड!
अधिकारी: क्यों? क्या हुआ?
यात्री 2: जी, कुछ नहीं!
अधिकारी: ट्रंक खोलो।
यात्री 2: ट्रंक में कुछ नहीं है।
अधिकारी: जब मैंने कहा - खोला, तो खोलो।
यात्री 2: (ट्रंक खोलकर) ये लीजिए..। (अन्दर झाँककर कूलर को देखकर) इस कूलर में क्या है?
यात्री 2: जी, कुछ नहीं - केवल खाने-पीने का सामान और एक दो बियर - बस -!
अधिकारी: (खोलकर) ये क्या है..? स्टेक है।
अधिकारी: नहीं, नहीं, - ये तो नहीं जायेगा - ये जा ही नहीं सकता! इसे तो आप नहीं ले जायेंगे।
यात्री 2: क्यों?
अधिकारी: मैड काऊ का लफड़ा है.., इसकी तो जाँच होगी।
यात्री 2: लेकिन ये तो ’डियर’ का है।
अधिकारी: डियर का हो या काऊ का- है तो स्टेक ही ना...। क्यों, क्यों और वो भी कनेडियन - नो, नो हम कनेडियन पर भरोसा नहीं कर सकते!
(गाड़ी का दरवाज़ा खोल कर अन्दर झाँकता है)
इसमें से तो पॉट की बदबू आ रही है।
यात्री 2: नहीं- इसमें कोई पॉट-वॉट नहीं और ना ही इसमें कुछ ऐसा है।
अधिकारी: सुनो! तुम हर बात में नहीं-नहीं कर रहे हो और एक-एक करके सब निकल रहा है। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, उस पॉट को निकाल कर बाहर रखो!
यात्री 2: अरे होता तो रखते - स्वीयर टू गॉड! हमारे पास कुछ नहीं है।
(इस दौरान अधिकारी चीज़ें ढूँढता रहता है। थैला देखकर)
अधिकारी: इसमें क्या है?
यात्री 2: जी - फल हैं।
अधिकारी: इसे भी नहीं ले जा सकते। लेकिन क्यों?
अधिकारी: ये तो मिनीस्टर ऑफ़ एग्रीक्लचर से पूछना पड़ेगा!
(उसे कूड़े में डालता है)
यात्री 2: ये आप क्या कर रहे हैं?
अधिकारी: (रौब से) देखो! सरकारी काम में रुकावट करोगे तो नतीजा जानते हो, क्या होगा? (दोनों मुँह लटका कर खड़े हो जाते हैं। गर्मी के कारण पसीना-पसीना होते हैं। यात्री-1: रुमाल निकाल कर पसीना पोंछता है)
क्या बात है तुम दोनों को पसीना क्यों आ रहा है - (याद करके .. ’सार’ के बारे में)
अधिकारी: ओ.. नो! ओ... नो! ओ.. माई गॉड!! तभी तो कहूँ कि इतना पसीना क्यों आ रहा है तुम्हें। (जेब से निकाल कर दस्ताने पहनता है मुँह पर कपड़ा लगाता है।)
यात्री 1: ये क्या बक रहे हैं आप - ऐसा कुछ नहीं है। आप बे-बात का बतंगड़ बना रहे हो। गर्मी के मारे बुरा हाल है और ऊपर से आप ’सार’ की बात थोप रहे हैं।
अधिकारी: अरे थोप नहीं रहे हैं - तुम्हें है!! तो फिर तुम्हें इतना पसीना क्यों आ रहा है?
यात्री 1: गर्मी के कारण।
अधिकारी: कारण कुछ और भी तो हो सकते हैं। हम कैसे मान लें कि तुम्हें पसीना गर्मी की वज़ह से ही आ रहा है..?
यात्री (दोनों): ...वी लीव यू.एस.
अधिकारी: आप दोनों उधर - उधर खड़े हो जायें। (जेब से पेन पेपर निकालते हुए, पूछता है-) - तुम्हारा फ़िज़िकल चेक-अप होने से पहले जो मैं पूछता हूँ उसका सही-सही जबाव दो।
-- इस दौरान तुम किसी हॉस्पीटल गये।
यात्री 1: जी नहीं।अधिकारी:घर में, रिश्ते में कोई नर्स-वर्स है जो हॉस्पीटल में काम करती हो।
यात्री 2: जी नहीं।
अधिकारी: किसी ऐसे व्यक्ति के सम्पर्क में आए हो जिसे सार हो या होने की आशंका हो।
यात्री 1: जी नहीं।
अधिकारी: किसी ऐसे जन समारोह में गये हो जहाँ सार वाले हों।
यात्री 2: जी नहीं।
अधिकारी: ठीक है। आप उधर खड़े रहें मैं अपने बॉस से पूछता हूँ। (सेल-फ़ोन निकालकर)
हेलो,- जिम- सुनो, मुझे लगता है कि यहाँ सार वाले कई लोग लाइन में खड़े हैं जिन्हें पसीना आ रहा है। उनका पूरा चेक-अप करना होगा।
(जिम की आवाज़):यस यू आर राइट। मैं अभी पी.ए.से अनाऊंस करता हूँ--
अटेन्शन प्लीज़, अटेन्शन प्लीज़, कैनाडा से अमेरिका जाने वाले जितने भी यात्री हैं, जिन्हें पसीना आ रहा है, कृपया वो अलग लाइन में खड़े हो जाएँ-- तुरन्त! थैंक यू।
ये क्या लफड़ा है।अधिकारी: लफड़ा नहीं हक़ीकत - तुम तो जा ही नहीं सकते। तुम्हारे साथ एक नहीं कई लफड़े हैं। काऊ, सार, स्टेक, फल, पॉट और न जाने क्या क्या... सॉरी आप उधर... ओ ऊधर खड़े हो जाएँ।यात्री (दोनों):सुनिये... (इतने में लोगों का झुँड आता है जिसे अधिकारी धकेल रहा है। आवाज़ आती है--
- अरे मानते क्यों नहीं हमें सार नहीं !
- ये पसीना धूप का है!
- अरे सुनिए तो सही!
- आप इन्सान हैं या हैवान!
- ये तो सरासर ज्यादती है!
- आप पुलिस क्यों बनते हैं हर जगह - समझ नहीं आती!

धीरे धीरे लाइट बन्द होती है। एक आवाज़ उभरती है----
नेक्स्ट प्लीज़

कामना

ओ करुणामयी
ओ ममतामयी
सृष्टि के रचियता
ओ भाग्य विधाते
कुछ ऐसा कर दे
ऐसा वर दे
संताप धरा के हर दे...ओ...

नित नये सूरज उगें
नित नई प्रभातें हो
धरा के आंचल में
फूटे नित नये अंकुर हों
दरिद्रता हटे, हटा दे
मानव का तू उद्धार कर दे...ओ...

असहायों को मिले अभयदान
पीड़ितों को सम्मान मिले
अत्याचारों पर लगे अंकुश
मानवता को संबल मिले
कटुता मिटे, मिटा दे... ओ...

हो उज्जवल कामनाएँ
फलीभूत हो आशायें
भानु वेग भर वरुण का
वरदहस्त हो जीवन मस्त हो
चहुँ ओर खुशी हो
खुश हो खुशहाली भर दे...ओ...