Wednesday, February 2, 2011

भांची

दि उ .....
फुंडू फुका यार ...
कैकी छा छुई लगाणा !

इत्कै गाल गाल अ ईच नौनी
त,
गंगाजिम डाल दया
वीथै भी अर तुम थै भी मुक्ति मिली जाली
क्या समझ्य !?
नि बिंगा ??
खत्यु च खत्यु !

पराशर गौर
मई १४ स्याम ५ १७ पर २०१०

वापसी !

बर्षो का बाद ,आज ....
लौटियु मी अपणा मुल्क
सब बन्धनों थै तोडी
सब सरहदों थै लांघी , छोड़ी
ज्युदु ना ........
बल्कि बणीकि राख
माटै कि क्मोलिम !

jab तक ज़िंदा ऱौ
सदान मयारू पहाड़ --------
एक तस्बीर बणी रा
म्यारा मन मा !

जै थै मी , देखीत सकुदु छो
महशुस भी कैरी सकदु छो
पर झणी किलै.........
वख वापस लौटण पर
मेरी मज़बूरी मी थै कैकी मजबूर
मी पर खुटली लगै दीदी छै !

हरिद्वारम,
जनी म्यारा अपणोन
माटे कम्वालीकु मुख खोली
म्यारू रंगुण बोली .....
आजाद ह्वेग्यु आज मी
वी घुट्ली से
एकी अपणी धरती म़ा !

व धरती -----------
जै कि माटिम मिल
लदवडि लस्कै लस्कै
लिस्ग्वारा लगैनी
जै कि म्याल्म मिन
घुटनों क बल चल चली
गुवाय लगैनी ------
जैमा कभी कभी
थाह थाह लींद लींद पतडम पोडू
डंडयालम !

जख ......
ब्वै की खुच्लिम सियु
बे-फिकरी से
भैजी क कन्दोमा चैड्यु
दीदी का हतोमा ह्वली खेली
ददी की ऊँगली पकड़ी च्ल्यु
बाबाजी क खुट्युमाँ धुध भाती खेली

जख ------------
गोरु पांति चरैनी
लुखुकी सग्व्डीयुमा
ककड़ी - मुंगरी चुरैनी
रोज लुखुका औलाणा सुणी !
दख सिर्फ ये बातो च
डंडी कंठी , घाड गदेरा
तमाशा . म्यला ख्याला
सब उनी राला , उनी हवाला
पर मी नि रोलु ....!

जनी मेरी राख
किमोली बीटी भैर आई
और हवा से मिली
उन्मत /स्वछन्द ह्वोकी व
बथो का दगड उडी
एक अंतहीन दिशा की तरफ !

parashar gaur
२१ जनबरी २०१० सुबह १..१३ पर

सवाल - जबाब

तुम,
मुझ से पूछते हो की
मेरी मुठी क्यों भिंची है?
मेरे आँखों में अंगारे क्यों है ?
मेरे स्वासो में उच्च वास कैसा ?

तो ...

उसका एक ही जबाब है .."तुम "
तुमने मेरे पेट पर लात मरकर
मेरे मुह का कौर छीन कर
मुझे ...
दर बदर भटकने पर नह्बुर किया है !

फिर भी पूछते हो की
मेरे आंखो में अंगारे क्यों ?
मेरी मुठीया क्यों भिची है ?

जबतक मुझे ...
मेरे सवालों का जबाब नहीं मिलता
तब तक ये ..
एसे ही रहेंगी तुम्हे घरती
सवाल करती !

पराशर गौर
१ फरबरी २०१० दिनमे १.३० पर

मरना एक मौत का !

एक तरुण ने
जैसे ही अपनी यौबन की दहलीज पर
अपने पाऊ रखे ही थे कि
मौत उसे निगल गई !

पंखे से झूलती उसकी लाश
मौन होकर ......
अपने ऊपर हुए अत्याचारों का
सबूत दे रही थी !
उसका वो मुरझाया चेहरा
उसकी वो लटकी गर्दन
कह रही थी .......
तुम सबने मिलकर मुझे मारा है ?

मुझे मारा है ...
मेरी माँ/बापा कि महत्वाकंशावोने
जो बार बार मुझ पर लादी जाती रही है
बिना मेरी , भावनाओं को समझे !

मुझे मारा है.....;
मेरे स्कूल के माहोल ने
जिसने मुझे बार बार प्रताड़ित किया है
कचोटा हैं , मुझे अन्दर ही अन्दर
हीन भावानौ के बीज बौ बौ कर !

मुझे मारा है ..
मेरे सीनियरो के घमंड ने
जो मुझे सरे आम हँसी का पात्र बनाकर
बार बा र मुझे लजित करते रहे
सब के सामने !

मै,
मरना नही चाता था
परन्तु मेरे पास ....,
इसके सिवा कोई बिकल्प भी नही था !

एक बिकल्प था
" बिद्रोह का ....//"
"बिद्रोह " .... किस किस से करता ?
सब के सब तो
अपने अपने चक्रब्यू में मुझे
फसाते जा रहे थे .....
जिससे बाहर निकलना
मेरे लिए ना मुमकिन सा था !

मुझे मारा है ....
मेरे अंदर के झुझते " मै ' ने
जो लड़ते लड़ते हार गया था
अपने आप से !

मै मर गया हूँ तो क्या ?

जीने कि लालसा और
उमीदो कि किरन अभी भी
सेष है .................!

जब तुम सकब लोग .,
मेरी भावनाओं को और
मेरी पीड़ा को समझ लोगे
तब.....
तब , कोई नही मरेगा
और नहीं मारेगा
वो ........
जियेगा एक सुनहरे भविषय के लिए !

पराशर गौर
५ फरबरी २०१० ३.४५ दिन में



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मंथन

होने दो हिने दो
आज विचरो का मंथन
विचारो से उत्पन होगी क्रांति
जग करेगा उसका अभिनन्दन !

सुना है की राजधानी
उंचा सुनती है
सता में बैठे लोग
अंधे,गूंगे, बहरे होते है
अब अंधे, गुंगो को ..
रहा दिखानी होगी
उनसे उनके ही राग में
उनसे बात करनी होगी
करना होगा दूर हमको
उनका वो गुंगा/अंधापन ... होने दो होने दो ..

भूखा - भूखा न सोयेगा अब
अधिकारों की बात करेगा
खोलेगा राज वो अब
पतित भ्रष्ट , भ्रष्टा चारो का
हटो ह्टो, दूर हटो, है
ग्रहण करेगी जनता आज राज सिंघ्खासन ..... होने दो होने दो

हासिये पर हो तुम
जनता का रथ मत रोको
बदने दो उसको उसके लक्ष्य तक
मत उसको टोको
रोक न पावोगे प्रभाऊ उसका
गर बिगड़ गई वो
सांस लेना होगा तुमको दूभर
गर बिफर गई वो ...
भुलोमत , मतभूलो
की है जनता जनार्धन .... होने दो ...

आम पथों से राज पथ तक
बस एक ही होगा नारा
हक़ दो, हक़ दो ...हटो
है राज हमारा .......
एक ही स्वर में नभ गूंजेगा तब
स्वीकार नही है , भ्रष्टो का शाशन .. होने दो ...

पराशर गौर
६ मार्च २०१० सुबह ७.२७ पर

हसिकाए

कबिता क्या होती है

मन मोहन जी ने गौड़ से कहा
एक बात बताये " कबिता क्या होती है ?"
गौड़ बोले .. " कबिता वो होती है जो
मन मोहन के पास जाते ही रोती है "

------
अँधा
एक अंधा सडक में भीख मांगते हुए
कह रहा था
" .. ये बाबू , एक रुपया दे दो
भगवान् तुम्हारा भला करेगा
एसा मेरा मन कह रहा है "
जैसे ही बाबू ने पैसे डाले
तपाक से भिखारी बोला ...
' --- ये बाबू अपने पैसे उठा ?
रूपये के बदलव चवनी दे रहा है ! "

प्रमाण दो !

उसने मुझ से कहा ..
तुन्हें अपने बुधिजीबी होने का
प्रमाण देना होगा !
मैंने कहा .. ठीक है , दूंगा ..
पर उससे पहले मै,
मै तुमसे एक प्रश्न पूछुंगा
तुन्हें उसका उत्तर देना होगा !

मैंने प्रश्न किया ..
" क्या तुम इस नीली श्याही वाले पेन से
लाल रंग में, लिख सकते हो ? "
वो बोला.. नहीं ,
ये नहीं हो सकता , ये कैसे हो हायेगा ?

मैंने फिर प्रशन किया ..
" तुन्हारे पास दिमाग है ? "
वो बोला .. " हां ..है "
मै बोला ... उसका इस्तेमाल करे
आपको आपके प्रश्नों का हल मिल जाएगा !

पराशर गौर

अशांत हूँ !!!

सूरज ने ,
अपनी तपन से मुझे
कई बार तपाया है
तपा हू, जला हूँ
फिर भी शांत हूँ !

लेकिन,

तुम्हारे...., एक अबिश्वाश के ,
घात के आघात ने
मेरे मन की बेदना को
चीखौ में बदल के रख दिया
चीख रहा हूँ ,, बेचैन हूँ , करारहा हूँ
अशांत हूँ !

पराशर गौर
जून २ ,२०१० समय ६ १२ पर

" १५ अगस्त "

तिरंगे ने सब धर्मो से पूछा --
क्या तुम मेरे अन्दर के आकार ( अशोक चक्र )
को जानते हो / पिह्चानते हो
वे बोले -- नहीं तो ?
हमतो केवल , चाँद या क्रॉस या अन्य चिनो को
जानते है /पहिचानते
ये क्या है ????
तिरंगा बोला ...
ये वो है जो तुम सबको सुरक्षित रखता है !

पराशर गौर
१४ अगस्त रात ११.०० बजे

एक सुझाऊ

एक बीमा एजेंट
किसी के पास गया
अपना परिचय देते हुए
उसने उसे समझाया
मै बीमा एजेंट हूँ
मै आप जैसो का बीमा करता हूँ
आप मर गए तो .............,
आपके घरवालो को पैसे दिलाता हूँ !
कभी सोचा है ..
अगर आप किसी दुर्घटना में मर जाए
घरवाले यतीम हो जाए
घर खर्चा कैसे चलेगा ?
आपके नन्हे नन्हे बचो का क्या होगा ?
आप तो चले जायेगे , छुटी हो जायेगी
सोचा है , भाबी जी क्या करेंगी ?
अरे इसलिए कह रहा हूँ
मेरी बात मान लो ...
अपना बीमा करवा लो
कराके बीमा निश्चित हो जाओ
उसके बाद जब जी में आये जेसे चाहो
बे फ़िक्र होकर मर लो !
पराशर गौर
@कापी राईट दिनाक १६ अगस्त २०१० श्याम ७.४८ पर

चार लाइन

बांध को बांध ले ते है सब
नदी को बांध न पाया कोइ
नभ को छू लिया है हमने
न बांध पाया मन को कोइ

रिशता

मै
एक मित्रके साथ
उसके लिए लड़की देखने
लड्किवालो के घर गया !

पहुँचते हुआ स्वागत
पूड़ी/कचोरी , मिठाइयो से
हुई आवा - भगत !

तभी ,
लड़की की माँ - मिठाई लेकर
मेरे पास आकर बोली ..... ,
" बेटा---, क्या करते हो ?
इसी शहर से हो या बाहर रहते हो ?
अभी पड़ाई चल रही है या
नौकरी करते हो ?
भाई/बहिन कितने है
माँ- बाप है भी , या नही ? "

मै टुकुर टुकुर
मै उसकी ओर देखता रहा
और वो बात करती रही !

लडकी का बाप
सब देख रहा था
लडकी की माँ शायद
गलत समझ रही है
वो बात समझ गया था !

पत्नी के पास जाकर बोला ..,
"अररी .. भगवान् ... लडका ये नही
वो ... वो ओ , वो, वो है
जिसने अभी अभी ...
अपने मुह पर हाथ रखा था !

उसे देखकर , वो बोली ....
वो ...?
उसे तो हम लडकी नही देगे
बाप बोला ... , " क्यों ... ? "
वप बोली ... ये कम बख्त तो
मुझे भी देखने आया था !

पराशर गौर
३ मी ०३ ओ५.५६

समय समय का फेर

पिछले दिनों में
अपने एक कवी मित्र जो किसी
हिंदी संस्था के अध्यक्ष थे
उनके घर मिलने गया
देखा ...,
वो कागजो में उलझे थे
पिछले दिनों वे संस्था के
चुनाव में हार गए थे ...
अब वो बर्तमान से भुत हो गए थे !

मैंने उनसे कहा .. " कहीए .."
समय कैसा कट रहा है
क्या कर रहे हो
वे बोले ...
क्यों घावों पर नमक छिडक रहे हो !

मै बोला .. नही नही मन्याबर
मै तो एक मित्रता के नाते
बात कर रहा हूँ
उनका उत्तर था .. " सच का रहे हो ?"
'---सची पूछ रही हो ?'
समय कैसे कट रहा है , काट रहा हूँ
तो आजकल मै ..
अपने नामके आगे लगे भुतपूर्ब शब्द को
रगड़ रगड़के मिटा रहा हूँ !

पराशर गौर
७ जुलाई ०३ २० ३१ पर

शादी का इश्तेहार

मै,
अपनी शादी के चक्कर में
रिश्तेदारों और ब्राहमणों के यहाँ
आते- जाते, जाते -आते थक गया
दिन बीते , उम्र टहलने लगी
बुडापा ठलने को आया !

एसे मे,
ना तो कोइ सन्देश
और ना ही , कोइ रिश्ता आया !

एक मित्र ने दी सलाह
क्यूँ भटक रहा है दर -दर मेरे यार
अपनी शादी का तू .
अखबारों में दे इश्तेहार !
सो दिया........
" एक सुन्दर सुशील , टिकाऊ
जो नही है बिकाऊ के लिए
एक सुंदर स्त्री चाहिए ...."

कुछ दिनों के बाद
पत्र आए .............,
स्त्रीयुओ के कम
पुरषों के ज्यादा आये !

खोलकर , जब पड़ा
सबने एकही बात लिखी थी
कृपया , हमारी ले जाये !

पराशर गौर
४ जून ०२ १३.१२

Drunk एंड द्राइब

एक पार्टी में जब गया मै
माँ तेरे कहे हुए शब्द जहन में थे
तू ने कहा था --- "पीना मत "
मेरे हाथ था सोडा और जम पी रहे थे !

चल रहा था दौर जामों का
तेरी बात मुझको, याद आती रही
जब पीना हो तो , गाडी मत छूना
जहन में बस वही बात घुमती रही !

दोस्त कर रहे थे आग्रह मुझसे
अरे एक आध पैग पीले पीले
कल किसने देखा है मित्र ----
आज की इस स्याम को, जी भरके जी ले !

मैं उनको बड़े आदर से किया मना
मित्र , मै ठीक हूँ आप इंज्वाय करे
ट्रंक एंड द्राइब बात थी जहन में
वो सब मस्त थे , था अकेला मै जाम से परे !

था मुझको मालुम जो कर रहा था मै
जो तुने कहा था वही कर रहा था मै
पार्टी ख़त्म होने को है सब जाने को है
आता हूँ शीघ्र माँ, निकलने को हूँ मै !


किसीने अनदेखी मै , दी मरी टकर
जैसे ही गाडी गई सडक में मेरी
इतनी भयंकर थी टकर ,टकराकर
चार पाच बार रोल हुई गाडी मेरी !

मै चोटग्रस्त था बीच सडक में
लहुलुहान था तडफ रहा था
आई पुलिश सिच्युएशन देख रही थी
कह रही थी , मरी जिसने टकर,, वो पिए हुए था !

अम्युलैंश ने देखा देख के वो भी घबराए थे
बहता खून देख हाथ पाउ उनके फुल रहे है
जतन करते करते ओ कह रहे थे
क्या लेजाए हस्पताल , इसका तो बचना मुश्किल है !

माँ, एक बात कहूँ, मैंने तो पी ही नही
फिर मुझको ये सजा मिली क्यों है
दोष किसकी का और भुगते कोई
इश्वर तेरे यहाँ एसा क्यों है !

मै गिन रहा हूँ अंतिम साँसे
जिसने पी , मरी टकर वो मुझे घूर रहा है
मै मिरतु शाया पर लेटा हूँ
वो जीबित खड़ा खड़ा निहार रहा है !

माँ में तुम से एक बात पूछता हूँ आज
उत्तर दे मै जा रहा हूँ
जब मैंने पीकर गाडी नही चलीइ
तो? मै ही क्यों मर रहा हूँ !

अनुबादक
पराशर गौर
सितम्बर १० दिनमे ३.३४ पर

अस्थाई हूँ मै !

अस्थाई हूँ मै ! !

मेरा गाँव
अभी वही है
वे चोराहे ,वो पगडंडिया
वो खेत अभी भी वही है !
वो चशनाले, वो पर्वत
वो चोटी पर बना मंदिर
मंदिर के अंदर रखी वो मूर्ति
अभी भी वही है !
सब कुछ तो वही ही है
अगर नहीं हूँ तो- मै !
मै ,
नियति के हाथो की कठपुतली बनकर
फिर रहा हूँ इधर से उधर
उनकी तरह स्थाई नहीं हूँ
अस्थाई हूँ मै !

पराशर गौर
दिनाक २८ जनबरी २०११ समय दिनके १.१५ पर

उठ !

वो,
पत्थर को भगवान् मानने वाले इंसान
जरा,
चेतना की आँखे खोल
ये पत्थर तुझे ,
चोट की सिवा कुछ नहीं देंगे
ये, भूखो को रोटी नहीं देंगे
ये, चीखती चिलाती दुखियारो के
आंसू नहीं पोंछ पायेंगे !
उठ ,
जिन हाथो ने तुने इसे तराशा है
उन्ही हाथो से मेहनत कर
उठा
फावड़ा , कुदाल गेंती
चीर कर धरती को पैदा कर
वो अनाज ,
जो भूख को शांत करती है
जो देती है संबल जीने का
तब ,
तू भी सुखी रहेगा
तेरा ये भगवान् और समाज भी !

पराशर गौर
२५ जनबरी २०११ रात ११ बजे

तसवीर

तसवीर



वो

सामने देख रहे हो

दीवार के सहारे बैठी,

उस नरकंकाल को ?

वो,

विदेश में बसे

जॉर्ज याने जीत सिंह की माँ है

जो,

अपनों की राह ताकते ताकते

हड्डियों का ढांचा बन गई है!



जिसके शरीर पर

कपड़े का चिथड़ा टिकता नहीं

प्राण,

जाने कहाँ पर अटके होंगे !



शून्य आकाश को

ताकती उसकी निगाहें

हर आने-जाने वाले से

एक ही प्रश्न कर रही हैं

कि,

मेरा क्या गुनाह है

जिसकी सज़ा, मुझे मेरे अपने

इस तरह से दे रहे हैं !



कह रही है

कोई, मुझे एक बार उसकी

शक्ल दिखा दो तो, मैं

मैं चैन से मर जाऊँगी



मैं कहता हूँ

जिस दिन उसने तेरी ये

शक्ल देख ली .....

उस दिन जीत सिंह, जीत सिंह नहीं होगा

जॉर्ज, जॉर्ज नहीं रहेगा`

तू तो

मर कर भी ज़िंदा रहेगी माँ के रूप में

लेकिन वो,

ज़िंदा रह कर भी मर नहीं पायेगा

वो तो

प्रयाश्चित कि आग में झुलसता रहेगा

ता ज़िन्दगी भर !



कापी राइट @

पराशर गौर

२५ जनबरी २०११ समय ११ बजे दिन में