Monday, April 27, 2009

हास्य व्यंग्य
हाय रे पुरस्कार —पराशर गौड़
जैसे ही खबर आई कि हिन्दी के एक जाने माने गुमशुदा कवि, लेखक व आलोचक को दिल का दौरा पड़ने के बाद उन्हें अस्पताल मे भर्ती किया गया है, प्रिन्ट व इलौट्रौनिक मीडिया सीधे अस्पताल की ओर दौड़ पड़े। पहुँचते ही आदत के अनुसार उन्होंने सवालों की झड़ लगानी शुरू कर दी। कब क्यों कैसे... आदि-आदि तभी एक रिपोर्टर ने सवाल किया,''दिल का दौरा पड़ने का कोई ख़ास कारण?''भीड़ में एक नेतानुमा साहित्यकार दिखने वाले व्यक्ति ने तुरन्त जबाब दिया,''शायद साहित्यिक पुरस्कारों से वंचित रहना...''
ये क्या बेहूदा जबाब है प्रश्नकर्ता ने इसे घूरते हुए कहा। ये बेहूदा नहीं बिल्कुल सही और सटीक उत्तर है जनाब। जैसे अचेतन को साँस, मृतक को प्राण, खुजली वालों को नाखून व गंजे को बाल मिल जाने पर जैसे उनके चेहरों पर रौनक आ जाती है वैसी ही रौनक लेखकों व कवियों के चेहरे पर पुरस्कार व पुरस्कार की घोषणाओं दिखाई देने लगती है। यह उनके जीवन मे संजीवनी का काम करती है।
भाषण की मुद्रा में आते ही महाशय शुरू हो गए और कहने लगे... अब देखिए ना जैसे आप सभी जानते हैं कि आदमी एक सामाजिक प्राणी है। अपने प्राणों की आहुति देकर भी समाज में उसको औरों से ऊपर उठकर विशेष ओहदा बनना ज़रूरी हो जाता है। इसे संक्षेप में सोशल स्टेटस के नाम से जानते हैं। ये सोशल स्टेटस भी कभी-कभी अच्छे अच्छों की ऐसी तैसी करके छोड़ता है उदाहरण के लिए किसी बड़े आदमी के फंक्शन में अगर फिल्मी हस्तियाँ ना आएँ खासकर जब तक विपाशा वासू बीडी जलाये ले वाले गाने में अपने जलवे व ठुमके न लगाए तब तक वहाँ पर आए मेहमानों पर उस परिवार का रौब नहीं पड़ता। ठीक इसी तरह कोई भी लेखक या कवि चाहे कितना ही बढ़िया लिखता हो उसकी तब तक पूछ नहीं होती जब तक उसे पुरस्कार न मिले। भलो ही ये पुरस्कार कैसे भी हों, किसी भी जुगाड़ से मिले हों पर होने चाहिए।
आज के ज़माने में पुरस्कार अब केवल दिखावा है। मंचों से कवि और कलाकार स्वयम यह कहते सुना जा सकता है कि ''आप की अनुकंपा से कि मुझे ये पुरस्कार मिला... वो पुरस्कार मिला'' अपने आप हथियाए गए पुरस्कारों की एक लम्बी लिस्ट पढ़े बिना वे मंच से नहीं उतरते। मेरे मकान के साथ लगे चौथे मकान पर हिन्दी के एक अच्छे लेखक रहते है उन्होंने हिन्दी की बड़ी सेवा की है। मैंने जान बूझकर जाने माने नहीं लिखा क्योंकि उनको जानते तो सब है पर साहित्यिक क्षेत्र में रहने वाले उन्हें मानते कुछ भी नहीं। जब भी पूछो कैसे हो क्या हो रहा है तो उनका नपातुला जबाब होता है जीवन के अतिम पड़ाव में हूँ बस लिखे जा रहा हूँ। एक रोज़ मैंने पास जाकर उनकी दुखती रग पर हाथ रख कर पूछ लिया... ''आपने तो ज़िन्दगी भर लिखा है। अपनी मातृभाषा की सेवा की है। इसके ऐवज में आप को कोई पुरस्कार उरस्कार भी मिला या नही...'' पुरस्कार का ज़िक्र आते ही वे आसमान की ओर निहारने लगे है और पल भर के बाद बोले, ''...पुरस्कार... अभी तो नहीं... शायद... मरने के बाद नसीब हो।'' कहकर वे अन्दर चले गए। पुरस्कार न पाने की पीड़ा उनके चेहरे पर साफ़ देखी जा सकती थी। यहाँ पर मैं एक बात साफ़ कह देना चाहता हूँ कि उन्होंने इस पुरस्कार को लेकर कभी भी कोई शिकायत नहीं की और ना हीं कभी पाने की कोशिश की।
वही कवि महोदय रोज़ की तरह अगले दिन भी सुबह सुबह अखबार पढ़ रहे थे जिसमें समाचार कम हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती ज्यादा थीं। हालाँकि इस तरह की खबरो में उनकी कोई रुचि नहीं थी परन्तु एक ऐसी खबर ने उनका ध्यान अपनी ओर खींचा जिसे पढ़े बिना वे नहीं रह सके। मोटे मोटे अक्षरों में लिखा था- ''एक विदेशी प्रवासी हिन्दी में उत्कृष्ट योगदान के लिए पुरस्कृत।'' उनका माथा ठनका, सोचने लगे ''विदेशी...वो भी प्रवासी... ये बात जम नहीं पा रही है। माना विदेशी...वो तो ठीक है ऊपर से प्रवासी... क्या मतलब? या तो विदेशी कह लो या फिर प्रवासी। थोड़ा और अन्दर झाँक कर पढ़ा तो पता चला इनके दादा के दादा भारत से काफी अर्सा पहले भारत को छोड़कर विदेश गमन कर गए थे याने सौ साल गुज़रने के बाद इनके पीछे प्रवासी शब्द आ चिपका।
वे तार तार हो गए.. जब देखो हिन्दी के और हिन्दी के नाम पर ज़्यादा से ज्यादा पुरस्कार विदेश में रहने वाले ही खींचकर ले जाते है। सच्चा हिन्दी साहित्यकार और सच्चा हिन्दी सेवक देशवालों से भी पिटता है और प्रवासियों से भी। जो जिस दर्द का मारा होता है उसे उस दर्द का ज्ञान होता है जाके पैर न फटी बेवाई सो क्या जाने पीर पराई। यहाँ भी तो यही हो रहा है। कवि जी फिर सोचने लगे ''पुरस्कार...'' कौन-सा... किस नाम से... किस के द्वारा... कितने का... आजकल लाख दो लाख का लगता है जैसे सौ दोसौ रुपए का हो। ऐसे पुरस्कार पाने वाले और देने वालों की सख्या भी हज़ारों लाखों में पहुँच गई है। पुरस्कार न हुआ रेवड़ी हो गई। भाई कवि है तो... ज़ाहिर है कवि को कवि से ही जलन होगी। कवि से जलन नहीं होगी तो क्या मिरासी होगी? सीधा-सी बात है, इस प्रकार की पुरस्कार की घोषणा उनकी आत्म सम्मान पर चोट लग गई।
फिर उनके मन में एक सवाल कौंधा। ये महाशय अगर विदेश से है तो कौन से देश से है। क्या ये अमेरिका, कैनडा से है या योरोप, मिडलईस्ट या फिर वेस्टइन्डीज़ से क्योंकि जहाँ तक पुरस्कारों का सवाल है, भारत में पुरस्कार भी सबको देश के अनुसार ही दिया जाता है जो जितना अमीर देश से होगा उसको उतना ही ऊँचा और मँहगा पुरस्कार दिया जाएगा चाहिए उसने भले एक ही कविता क्यों नही लिखी हो या एक छोटी पत्रिका निकाली हो। खबर में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई वो उसे बड़े गौर से पढने लगे थे। पढ़ते पढ़ते सोचने लगे कि आखिर ये पुरस्कार उन्हें किस विधा पर दिया जा रहा होगा कविता, गीत, लेख, आलोचन, आलेख या फिर टी.वी. सीरियल पर। ऐसा कुछ भी तो नहीं लिखा था।
हाँ... सीरयलों का ज़िक्र आया तो आजकल जिसे देखो हाथ में मोबायल बगल में एक फाईल दबाये चार आदमियों के बीच ऐसे दिखावा करते है कि जैसे जाने कितने व्यस्त हो और पूछो तो कहेंगे- फला सीरियल लिख रहा हूँ। फलां फ्लोर में है। चार पाँच पर बातचीत चल रही है। देखा जाय तो ये लोग हिन्दी के लेखकों से कई गुना अच्छे है। नाम का नाम हो रहा है और दाम के दाम कूट रहे है। सरकार को चाहिए इनके लिए अलग से एक नया पुरस्कार शुरू करे जैसे टी वी साहित्य शिरोमणि। छोटे पर्दे का बड़ा बादशाह आदि आदि।
मेरे देश मे इन पुरस्कारों का इतना महत्व है कि कई लोग इस पर पी-एच. डी. ले सकते है। अब यह दूसरी बात है कि पीएच.डी. भी पुरस्कार की तरह बिना लौबी से जुड़े तो मिलने से रहा। आप लेफ़्ट से जुड़ना चाहेंगे या राईट से। वैसे लेफ़्ट में ज़्यादा फ़ायदा है क्योंकि आजतक जितने भी पुरस्कार मिले है उनमें लेफ़्ट से जुड़े हुए लोग अधिक हैं यकीं नहीं होता तो लिस्ट उठाकर देख लें। पर इन कविजी का क्या होगा जे ना तो लेफ़्ट से है और ना राईट से। ये बेचारे तो सीधे साधे विचार धारा से जुड़े हैं।
लौबी की बात आई तो मेरे देश में इन दो लौबियों के साथ-साथ विदेश लौबी का भी बड़ा हाथ है विदेशी लेखक हो और उसके पीछे विदेशी लौबी ना हो ये कैसे हो सकता है। यहाँ के लेखकों में अपने प्रचार प्रसार के पर्याप्त साधन और सुविधायें है। पैसा है और ब्रॉड बैंड है जिसके द्वारा वो भारत जैसे गरीब देश से किसी भी पुरस्कार को हथियाने का माद्दा रखते हैं।
२० अप्रैल २००९

इल्कशन की हुई घोषणा -

`````जैसे ही , इल्कशन की हुई घोषणा उमिद्वारो का तांता लगने लगा था जिसे हमने , कभी नहीं देखा था वो , सबसे आगे खडा था ! पार्टिया ......अपने अपने उमीद्वारो कोजनता में भुनाने लग गई थी उनके काले कारनामो पे सफेदिया पोतने लगी थी ! सभाओ का .........आयोजनों पर आयोजन होने लगे थेछुट भया नेता ......दिगज नेताओं के चप्पल उठाने लगे थे ! उमीद्वारो का परिचय मंच से दिया जाने लगा नेता उनके बारे में कहने लगा ये .................इस इलाके के माने ( वो गुंडा था) हुए है इनकी तस्बीरे तो ,अखबारों में की बार छापी है ! ये उमीद्वार .... जो आप देख रहे है ये आप के लिए ना सही परपार्टी के लिए की बार अंदर बाहर आते जाते रहे है समया साक्षी और जनता गवा है पुलिस चोकी इनका मायका और जेल इनकी ससुराल है ! बिपक्षी ......इनकी इस छबी को पचा नहीं पा रही है इनपे आरोप पे आरोप लगाए जा रही है की... ये ...गौ-चारा , रेप , मर्डरो में लिप्त है एसा प्रचार कर रही है ! अरे भाई .....किसिना किसी को तो वो चारा खाना ही था उसको ... कहिना कही तो ठिकाना लगाना ही था ! रही...................... " रेप और मर्डरो " की बात तो, हम साफ़ साफ़ कहते है ये तो हमारी पार्टी का सिम्बल भी है हमारी मैनोफैसटो में भी है जो जितना करेगा, करवाएगा उतना ही उंचा पद पायेगा हम आप को चेतावनी देते है और चिला चिल्लाकर कहते है ! बिपक्षी सुन ले .......... और , आप देख ले ....आप वोट दे या ना दे आप वोट डाले या न डाले आप का पडेगा - पडेगा हम दावे से कहते है हमारा ये
उमीद्वार ......... जीतेगा और जीतेगा !

पराशर गौड़

जूता संस्कृति ... " बहस "

जूता संस्कृति ... " बहस "

जूते चप्पलो में हो गई बहस छिड गई लड़ाई लगे करने दोनों अपनी अपनी बडाई ! चप्पले बोली ........यदपि, देखने में हम कोमल , नाजुक , कमजोर है ध्यान रहे ... हमारे किस्से जगत मशहूर है ! आम आदमी से लेकर मंत्री संत्री , नेता हमें अपने साथ रखने पर मजबूर है ! नेता जी ... नेताजी तो, .. हमें बड़े प्यार से दुलारते है पुचकारते है और बड़े सामान के साथ हमें पार्लियामेंट तक ले जाते है येसा नहीं ........ हम भी आडे वक़्त उनके काम आते है ! टेलीबिजन , अखबारों में आये दिन हमारी तस्बीरे छपती है जब जब हम पार्लियामेन्ट में एक दुसरे पर बरसती है ! वे जूते से बोली .. है तुम्हरा, येसा कोई किस्सा ? जो , संसद में लिया हो तुमने कभी हिस्सा ?????? जूत्ता बोला ... बस ... तुम में यही तो कमी है बात को पेट में पचा नहीं पाती हो युही खामखा ,,, चपड चपड़ करती रहती हो ! सुनो चाहिए हम रबड़ के हो या हो, चाँद के सारे मुरीद है हमारे यंहा से वंहा तक के ! जब जब मै चलता हूँ या चलूँगा ..... अच्हे आछो के मुँह बंद हो जायेग इसीलिए तो सब कहते है यार, चांदी का मारो तो सब काम हो जायेगे ! पटवारी से लेकर ब्यापारी तक , सिपाही से लेकर मंत्री तक सब हमारे कर्ज़दार है तभी तो, लोग कहते है जूत्ता ... बड़ा दुमदार है रही हिस्से किस्से की बात तमाशा देखना और देखोगे आज के बाद संसद में तुम नहीं , हम ही हम चलेगे ! ये किस्सा तो अपने देश में द्खोगे ही संसार में भी नाम कमाउगा देख लेना दुनिया के अखबारों के फ्रंट पेज पर अपनी तस्स्बीर छपाउगा ! देखा नहीं , इराक में क्या हुआ बुश पर कौन चला ? .... मै चिदम्बर, अडवानी और अब मनमोहन पर भी कौन चला मै ?

पराशर गौर

Sunday, February 22, 2009

अधूरे सपने

अधूरे सपने पाराशर गौड़

गोपी भारत में इन्जीनियर था और मधु एक ट्रेण्ड टीचर। उनका अपना एक छोटा सा परिवार था। जिसमें एक माँ थी एक भाई और भाभी। गोपी की अभी अभी नई नई शादी हुई थी। वहाँ वे अच्छा खा पी रहे थे। दोस्तों के कहने पर गोपी ने कैनेडा आने के लिए आवेदन पत्र भेजा। कुछ दिनों के बाद उसे एम्बेसी का पत्र मिला जिसमें उसके पत्र पर गौर करते हुए कैनेडा सरकार ने उन दोनों को वहाँ जाने व रहने की अनुमति दे दी थी।
परिवार में गोपी व मधु के विदेश जाने की खबर से खुशी का माहौल बना हुआ था। तैयारियाँ बड़ी जोरों-शोरों पर हो रही थीं। बधाईयाँ देने वालो का तांता लगा हुआ था कि अचानक माँ की तबियत खराब हो गई। उसे हस्पताल में भर्ती कराया गया। हालत दिनों-दिन बिगड़ती जा रही थी। उनके कैनेडा आने से दो सप्ताह पूर्व गोपी की माँ चल बसी थी। रह गया था बड़ा भाई और भाभी। यहाँ आने के ठीक एक साल बाद भाई का पहला लड़का हुआ जिसका नाम उन्होनें आनंद रखा। प्यार से वे उसे बिटु कह कर पुकारते थे। दो साल बाद एक और बच्चा हुआ टिंकू।
जब से गोपी और मधु कैनेडा आये। यहाँ आने के बाद अपने पाँव जमाने के लिए उन्हें क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़े। अच्छी डिग्रियों के होते हुये भी उन्होंने काम के नाम पर फैक्ट्रियों व एजन्सियों के धक्के खाये। एक सस्ता सा बेसमेंट किराये में लेकर नंगे अखबारों में सोये। ट्रेनों बसों के धक्के खाये। सर्दियों में बर्फ में मीलों मील पैदल चले। जब-जब बर्फ की ठंडी हवा हाथ पाँवों की उँगलियों को सुन्न कर देती थी तब-तब वे अपने हिन्दोस्तान व वहाँ की गर्मियों को याद करते थकते नहीं थे। क्या-क्या नहीं किया और क्या क्या देखा। आपा-धापी की जिन्दगी से जूझते हुए गोपी और मधु ने कैनेडा में अपना जम-जमाव कर लिया था।
पिछले 20 सालों में रात दिन एक करके गोपी ने अपनी टेक्सी डाल ली थी। मधु बैंक में कलर्क लग गई थी। दोनों ने मिलकर एक घर भी बना लिया था। इस दौरान उनके आँगन में एक सुदंर सी नन्ही बच्ची रोज़ी भी आ गई थी। ईश्वर की कृपा से अब उनके पास सब कुछ था जो उन्हें चाहिये था घर परिवार नौकरी और अपना काम। गोपी अपने परिवार के साथ बड़े अमन चैन के साथ रह रहा था।
सूरज ढलने लगा था। शाम के पाँच बजने वाले थे। रोज़ी स्कूल से और मधु काम से घर आ चुकी थी।
रोज़ी अपना होम वर्क करने के बाद मम्मी के कमरे से पुराने फोटो के एलबम उठा कर अपने कमरे में लाकर देखने लगी। देखते-देखते एक फोटो पर उसकी निगाहें टिक गईं। उसके बारे में जानने की उसकी जिज्ञासा जाग उठी कि ये है कौन?
एलबम को हाथों उठाये रोज़ी ने अपने कमरे से सीधे नीचे मम्मी के पास आकर पूछा- "मम्मी मम्मी देखो ये कौन है?"
फोटो को देखकर मधु बोली- "ये तेरे पापा है और कौन है।"
"हैं...!" आश्चर्य चकित होकर उसने कहा - "इतने हैंडसम थे पापा...!"
"हाँ...।"
"मम्मी मैं ये फोटो बड़ी कराने अपनी सहेली कैथलीन के यहाँ जा रही हूँ उसके पास स्कैनर है। इसे बड़ी बना कर मैं अपने कमरे में टाँगूँगी। मैं अभी आई।" कहते एलबम को वहीं छोड़ सीधे बाहर की ओर लपकी।

मधु ने ज्यों ही टेबल पर रखी एलबम को उठाया और देखने को हुई कि बाहर ड्राइव-वे में किसी गाड़ी की घर-घराहट सुनाई दी। लपक कर देखा तो गोपी था। बाहर आकर गोपी से बोली- "आप... आप आज इतनी जल्दी ही घर आ गये। सब तो खैरियत तो है।"
"हाँ... सब ठीक है। कस्टमर जल्दी-जल्दी मिल गये थे। कमाई भी और दिनों की अपेक्षा आज ज्यादा हो गई तो सोचा हर रोज देर से जाता हूँ आज ज़रा जल्दी जाकर रोज़ी से बैठकर बात करूँ। बहुत दिनों से उससे मिलना ही नहीं हो पा रहा है। रोज़ी स्कूल से आ गई या नहीं ......।" हाथों में लटकते थैलों को किचन के पास रखते हुए उसने कहा।
"जी......, आ गई है। अभी वो अपनी सहेली कैथलीन के यहाँ गई है जल्दी आने को कह गई है।" कहते उसने चाय का प्याला गोपी के आगे रखते हुए कहा।
"कल उसका जन्म दिन है। रोज़ी कल 18 साल को पूरा कर 19 की हो जायेगी। उसने कल अपनी कुछ सहेलियों को इस मौके पर घर पर बुलाया है। आप ज़रा जल्दी आ जाना। मैं भी काम से लंच के बाद आ जाऊँगी।" इतना कह कर किचन में चली गई।
"18 साल...।"
18 साल कब गुजरे। कब रोज़ी इतनी बड़ी हो गई, गोपी को पता ही नहीं लगा। गोपी दीवार पर लगी रोज़ी की तस्वीर की ओर एकटक लगा कर उसे देखते रह गया।
"क्या देख रहे हो।" मधु ने उसकी तन्द्रा को भंग करते हुए कहा।
"देख रहा हूँ हमारी कल की नन्हीं सी गुड़िया आज देखते देखते कितनी बड़ी हो गई है।"
"समय बैठा थोड़ी रहता है किसीके लिए..." मधु ने कहा। इतने में रोज़ी आ धमकी। सीधे पापा से मुखातिब होकर कहने लगी - "पापा ये देखें ..." फोटो दिखाते हुए रोज़ी ने कहा- "पापा ... आप इतने हैण्डसम थे...।"
"ये... अररे हैं भाई।" अपनी मम्मी से पूछो, "क्यों मधु......?"
"मम्मी से क्या आप हम से पूछिए... आप अभी भी हैन्डसम हैं।" रोज़ी ने कहा, "और हाँ डैडी कल हमारा जन्म दिन है जरा जल्दी आ जायेंगे तो हम पर बड़ी कृपा होगी।"
पलट कर मम्मी की ओर देखने लगी मानो कह रही हो... "क्यों मम्मी हम ठीक कह रहे है ना? क्योंकि पापा को तो हमारे होने न होने का कोई अहसास है ही नहीं। जब हम रात को सो जाते हैं तो आते हैं। और जब उठते हैं तो जा चुके होते है।"
"अररै! कैसे बात कर रही हो... कहो तो कल हम पूरे दिन घर पर ही रह जाएँ।" प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए गोपी ने कहा।
"नाट ए बैड आडिया...क्यों मम्मी ..?" कह कर रोज़ी सीधे ऊपर अपने कमरे में चली गई। वे दोनों किचन में कल की पार्टी के बारे में प्लान बनाने में जुट गये।
काम से लौटते समय मधु केक की दुकान पर रुक कर अपना ’ऑर्डर पिक’ करते हुए घर की ओर चल दी। रास्ते में ’रेडियो शैक’ पर नजर पड़ी तो एकाएक याद आया, स्कूल जाते समय रोज़ी ने कहा था, "मम्मी अबके बर्थ डे प्रेजेन्ट में मैं सी. डी. प्लेयर लूँगी ... हाँ।"
दुकान में घुसते ही वो शो केस में रखी चीजों को निहारते हुए सी.डी. की तलाश करने में लग गई। तलाश करते करते उसे सी.डी. प्लेयर मिल ही गया।

अंधेरा छाने लगा था। कमरे में रोशनी जगमगा रही थी। बैठक वाले कमरे में लाल पीले नीले कागज़ की लम्बी कतरन बाली पट्टिओं से कमरा सजा हुआ था, जिसमें गुबारे चिपाकाये हुए थे। वे पंखे की हवा में उड़ उड़ कर नीचे आने को आतुर हो रहे थे। कमरे के बीचों-बीच में एक टेबल थी। उसमें सफेद चादर बिछी हुई थी। जिसमें रखा हुआ था एक केक। उस केक पर बड़े आर्टिस्टिक अक्षरों में लिखा था, "हैप्पी बर्थ डे टू रोज़ी।"
रोज़ी की सहेलियाँ और गोपी एवं मधु केक के चारों ओर खड़े थे। रोज़ी हाथों में केक काटने का चाकू लिये बार बार बाहर की ओर देखे जा रही थी। तभी मधु ने रोज़ी से कहा –
केक काटो बेटा...।"
"हाँ ..., अभी काटती हूँ मम्मी...।" कह कर फिर बाहर की ओर देखने लगी।
"क्या बात है बेटे ?" मधु ने फिर रोज़ी से पूछा .. "किसी का इन्तजार है क्या?"
"हाँ... ।"
"चल तू पहले केक काट ले। वो जो भी है देर सबेर पहुँच ही जायेगा।" मधु ने उसे चाकू को पकड़ाते हुए केक काटने के लिए फिर कहा। इधर उधर देखने के बाद रोज़ी ने केक काट दिया। गोपी ने एक टुकड़ा उठाकर उसके मुँह में डालते कहा - "जन्म दिन मुबारक हो बेटे!"
"थैंक्स डैड....।"
रोज़ी के माथे को चूमते मधु ने कहा- "जन्म दिन बहुत बहुत मुबारक हो बेटे।" उसके मुँह में केक का टुकड़ा डालते हुए और साथ में गोपी की ओर देखते हुए उसने कहा- "बच्चे कितने भी बड़े क्यों ना हो जायें लेकिन माँ-बाप के लिए वे हमेशा बच्चे ही रहते हैं।"
इतना कहना था कि रोज़ी बीच में बोल उठी - "पर मैं अब बच्ची नहीं हूँ मम्मी... अब मैं बड़ी हो गई हूँ। आज के बाद मैं अपने निर्णय स्वयं ले सकती हूँ...... क्यों डैड?"
इस प्रकार के उत्तर को सुनकर पहले तो गोपी सन्न रह गया। सोचता रहा कि अगर वो इस समय भारत में होता और रोज़ी ने ये बात वहाँ कही होती तो दो थप्पड़ उसके गाल पर मारकर उसको उसकी इस बदत्तमीज़ी का उत्तर देता लेकिन क्या करे इस देश में तो उसके हाथ कानून के दायरे से बँधे हुए हैं। केवल हाँ में हाँ मिलाने के सिवा कुछ नहीं कर सकता। उसने ने मधु की ओर देखते हुए कहा - "हाँ...हाँ... क्यों नहीं क्यों नहीं बेटे।"
पापा की इस स्वीकृति को पाकर उसे लगा कि वास्तव में 18 साल पूरे होने का क्या अर्थ होता है। उसे लगा कि आज उसका भी अपना कोई वजूद है। लगा रहा था कि जैसे उसके हाथ में राजसत्ता आ गई हो। अब वो जो चाहे कर सकती है। अब उसे मम्मी पापा से हर बात में इजाज़त लेने के लिए गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा और ना ही मिन्नते करनी पड़ेंगी। आज उसे लगने लगा कि वह अब अकेले ही पूरे समाज से लड़ सकती है। उसे बदल सकती है।
पापा के हाँ सुनने के बाद उसने कहा - "तो पापा सबसे पहले मैं आज आपसे अपने दोस्त को मिलाना चाहती हूँ। आप यहीं ठहरिये मैं उसे लेकर अभी आती हूँ।" - कहने के साथ ही वो बाहर गेट की ओर लपकी। ये सुनकर वे दोनों एक दूसरे का चेहरा देखने लगे।
रोज़ी ने इधर उधर झाँका। डैनियल को ढूँढने प्रयास किया लेकिन डैनियल का कहीं पता न था। थोड़ी देर में मुँह लटकाये अंदर आकर बड़े मायूसी और रुआँसे शब्दों के साथ उसने बुदबुदा कर कहना शुरू किया...
"वो चला गया...।"
"वो कौन...? किसकी बात कर रही है तू ......? कौन चला गया?" गोपी ने रोज़ी से पूछा।
"मेरे स्कूल का दोस्त।"
"दोस्त... कौन सा दोस्त ...?"
"डैनियल ... ।" कहने के साथ ही भाग कर ऊपर अपने कमरे में चली गई। उसकी सहेलियाँ गोपी और मधु मुँह लटकाये सब एक दूसरे को देखते रह गये।
"आंटी हम चलते हैं... हम लोग कल रोज़ी से स्कूल में उसे मिल लेंगे।" कह कर वे सब अपने अपने घरों की ओर को चल दीं।
सोफे के एक कोने में गोपी तो दूसरे कोने में मधु पिटे हुए मोहरों की तरह चुपाचप बैठे हुए थे। मौन को तोड़ते हुए गोपी ने पूछा - "ये सब कब से चल रहा है।"
"मुझे क्या पता?" मधु ने उत्तर दिया- "मैं भी तो आप के ही साथ 5 बजे घर से निकल जाती हूँ। सूरज ढलने के बाद वापस लौटती हूँ। बचा खुचा समय घर की साफ-सफाई, चौका-चूल्हा, खाना बनाने में बीत जाता है। मुझे खुद अपने अगल-बगल में झाँकने का समय तक नहीं मिलता। चक्की की तरह पिसती रहती हूँ।"
"तुम माँ हो... तुम्हे पता होना चाहिए कि इस घर में क्या हो रहा है।"
"समझती हूँ ...समझती हूँ। थोड़ा संयम से काम लेना होगा। सब ठीक हो जायेगा। आप चिन्ता ना करें। अब वो बच्ची नहीं रही जवान हो गई है। थोड़ा धीरे बोलें।"
"हाँ ... जवान हो गई है। सुना नहीं कैसा जबाब दिया था तुम्हें उसने...। मन तो कर रहा था थप्पड़ से चेहरा बिगाड़ दूँ...-" गुस्से में उबलते हुए गोपी ने कहा –
"रहा जवानी का भूत तो निकालने में एक मिनट नहीं लगेगा मुझे। वैसे ये सब तुम्हारा कसूर है। तुम्हारे लाड़-प्यार ने बिगाड़ है उसे।"
"अर...ररे...... गुस्सा छोड़िये भी... कहा ना सब ठीक हो जयेगा। बच्ची है अभी। समझा दूँगी उसे बस...। चलिए आराम कीजिए।" - कह कर वे सोने चले गये।
दोनों सोने की कोशिश कर ज़रूर रहे थे लेकिन आँखों से नींद गायब थी। कल रात के घटनाचक्र ने उन दोनों की नींद गायब कर दी थी। सारी रात वो करवटें बदलते रहे। रोज़ी और डैनियल के रिश्तों को लेकर वे जाने क्या-क्या सोचते रहे। इस सोच को सोचते-सोचते मधु का सर दर्द के मारे फटा जा रहा था। वो उठी। उसने घड़ी की ओर देखा। सुबह के ढाई बज रहे थे। तकिये के नीचे से अपनी सर की चुन्नी को निकाल कर वह माथे पर कसके बाँधने के साथ लाइट जलाते हुए सरदर्द की गोली ढूँढने लगी।
"क्या ढूँढ रही हो...?" गोपी ने करवट बदलते हुए मधु से पूछा।
"सर दर्द की गोली।"
"इधर है मेंरे पास ... ये लो।"
गोली को पानी के घूँट के साथ निगलने के बाद वो गोपी से बोली –
"आप सोये नहीं ...?"
"तुम सोई हो क्या?"
"नहीं।" कहते-कहते मधु फिर बिस्तर में लुढ़क गई।

रोज़ की तरह रोज़ी तैयार होकर स्कूल को चल दी। वो डैनियल पर नाराज़ थी। नाराज़... बहुत नाराज़। जिसने उसे ऐसे अवसर पर धोखा दिया जब वो पहली बार उसके साथ मिलकर कोई निर्णय लेना चाहती थी। रास्ते में चलते-चलते वो अपने से बातें करती जा रही थी - "चाहे कुछ भी हो जाय आज मैं उस से नहीं बोलूँगी। चाहे वो कितना भी गिड़गिड़ाये कितनी विनती करे, चाहे कितनी भी कसमें खा ले... मैं पिघलने वाली नहीं...क्या समझता है वो अपने आप को।"
इतने में स्कूल आ गया। अपनी कक्षा में दाखिल होते ही उसे डैनियल दिखाई दिया। पल भर के लिए दोनों की निगाहें टकराईं। जितनी तेज़ी से निगाहें मिली थीं, रोज़ी ने उतनी ही तेज़ी से अपनी निगाहें पीछे हटा लीं। डैनियल को समझते देर नहीं लगी कि रोज़ी के गुस्से का पारा ज्यादा ही गर्म है।
पीरियड खत्म होते ही दोनों अपने लॉकरों की ओर चल दिये। डैनियल ने रोज़ी के पास जाकर कहा- "हाय,... हैप्पी बर्थ डे।"
रोज़ी ने जैसे ही सुना उसकी तरफ से अपना चेहरा दूसरी ओर मोड़ लिया और ऐसी अभिनय करने लगी जैसे उसने सुना ही नहीं हो।
"नाराज़ हो। वैसे तुम्हारा नाराज़ होना बनता भी है। क्योंकि मैं वहाँ से चला जो गया था।" रोज़ी की बाँह पकड़कर उसे अपनी ओर करते हुए डैनियल ने कहा- "हे......लुक ऐट मी ...पूछोगी नहीं कि क्य़ूँ गया था वहाँ से मैं।"
"हाँ क्य़ूँ गये थे। बोलो...... क्य़ूँ गये थे।" झटके से गुस्से में हाथ को छुड़ाते हुए उसने कहा।
"समझाता हूँ... समझाता हूँ... पहले यहाँ से बाहर तो चलो।"
"नहीं......, मुझे नहीं जाना ...।" तुनक कर रोज़ी बोली।
"अर...र...रै चलो भी......।" उसने रोज़ी की बाँह पकड़ी और उसे घसीटते हुए सामने रैस्ट्रोरेन्ट की ओर ले गया। बिठाते हुए बोला- "देखो रोज़ी मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारे जन्मदिन के मौके पर मुझे लेकर कोई लफड़ा हो। तुम्हें बे वज़ह बुरा भला सुनना पड़े वो भी मेरी वज़ह से... देखो..."
बीच में उसकी बात को काटते हुए रोज़ी बोल उठी- "देखो...देखो ...... क्या देखो! सब धरा का धरा रह गया। अपने 18वें जन्मदिन पर जब मैं सब के सामने कोई निर्णय लेना चाह रही थी तो तुम कायरों की तरह वहाँ से भाग गये।"
"आई एम सॉरी...... रियली सो सॉरी। रोज़ी... तुम मुझे कायर कह लो, डरपोक कह लो, जो भी जी में आये वो कह लो। लेकिन कहने से पहले थे गिफ़्‍ट तो देख लो, प्लीज़।" गिफ़्‍ट को उसकी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा।
रोज़ी ने गिफ़्‍ट को खोलकर ज्यों देखा.. मारे खुशी के डैनियल से चिपकते हुए उसने कहा- "हाउ स्वीट...... थैंक्स।" गाल पर चुबंन लेते हुए उसने कहा- "आई लव यू......!"
"मी टू......!" कह कर दोनों पल भर के लिए एक दूजे के बहुपाश में बंध गये। थोड़ी देर वहाँ बैठकर अपने गिले शिकवे मिटाने के बाद दोनों घर की ओर चल दिये।
रोज़ी डैनियल से मिलने के बाद बहुत खुश थी। हाथों में उसके गिफ़्‍ट को लेकर खुशी में गुनगुनाते जैसे वो घर में घुसी... माँ ने उसे पूछा- "क्या बात है आज बहुत खुश नज़र आ रही है हमारी बिiटया रानी और ये हाथ में क्या है?"
"गिफ़्‍ट...!"
"किसने दिया?"
"डैनियल ने ...!"
"ये डैनियल का क्या चक्कर है बेटे?" - मधु ने जानना चाहा।
"मम्मी... वो मेरा बहुत अच्छा मित्र है ... ही लव्ज़ मी एण्ड आई लव हिम टू...!" कह कर सीढ़ियों की ओर लपकी।
"ये लव-सव का चक्कर छोड़। पहले पढ़ाई पर ध्यान दे।" मधु ने समझाते हुए रोज़ी से कहा- "देख बेटे, ये सब बातें अगर तेरे पापा सुनेंगे तो बहुत गुस्सा होंगे। उनको तेरी इन करतूतों का पता चल गया तो क्या कहेंगे?"
रोज़ी अभी सीढ़ियों के बीच में पहुँची थी कि उसने मुड़ कर मधु से कहा- "ज़्यादा से ज़्यादा डाँटेंगे और क्या... हाथ तो लगा नहीं सकते। ज़्यादा तंग करेंगे तो घर छोड़ कर चली जाऊँगी।" कह कर कमरे में घुस गई।
"ये कैसी बात कर रही है तू।" जब तक और कुछ कहती तब तक भड़ाक से दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ ने उसे वहीं रोक दिया। सर पकड़ कर बैठ गई थी मधु।
दूसरे दिन रोज़ी जैसे स्कूल पहुँची उसने डैनियल से कहा-
"डैनियल... आज मैंने मम्मी को अपने इरादों की भनक दे दी है।"
"इरादे... कौन से इरादे? मैं तुम्हारे कहने का अर्थ नहीं समझा।" -डैनियल पूछा।
"यही कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ और मैं अपने प्यार के लिए कुछ भी कर सकती हूँ। यहाँ तक कि अगर मुझे घर भी छोड़ना पड़े तो मैं छोड़ दूँगी।"
रोज़ी के कहे शब्द "इरादों की भनक" ने डैनियल को सोचने पर मजबूर कर दिया था। यूँ तो वो भी कच्ची उम्र में उठते प्रेम की रौ में रोज़ी के साथ बह तो ज़रूर रहा था। इस उम्र में प्रेम में पागल होना और उसमें अन्धे होने का नतीजा क्या होता है यह उससे बेहतर कोई नहीं समझ सकता था क्यों कि उसकी माँ ने भी ऐसी ही गलती की थी। वो भी किसीके प्यार में अन्धी होकर अपने माँ-बाप, भाई-बहिन सबको दर-किनारा कर उसके साथ भाग गई थी, जिसने कुछ दिन साथ रहने के बाद उसके गर्भ में अपनी निशानी देकर उसे बीच रास्ते में अकेला छोड़, उसके जीवन से जाने कहाँ गायब हो गया था। डैनियल को उसकी माँ ने न जाने कितनी मुसीबतें झेलते हुए पाला था। कच्ची उम्र में, प्रेम में अन्धे होकर निर्णय लेने का अर्थ डैनियल ने बचपन से ही न केवल देखा था बल्कि उसे जीया भी था। अब रोज़ी के मुँह से वैसी ही बातें सुनकर वह विस्मित रह गया था और अपने आप से प्रश्न कर रहा था कि क्या वह भी रोज़ी के साथ वही गलती करेगा जो उसके माँ बाप ने की थी। उसने अपने मन ही मन दृढ़ता से निर्णय लिया और उसने रोज़ी से कहा- "रोज़ी सुनो ...तुम मुझे प्यार करती हो...?"
"हाँ...।"
"तो कसम खाओ कि तुम आज के बाद कभी भी घर छोड़ने की बात अपने दिमाग में नहीं लाओगी। मैं तुम्हें नफ़रत से नहीं प्यार से उस घर से अपने घर लाने की सोचता हूँ। तुम घर से भाग कर शादी इसलिए करोगी कि तुम और मैं खुश रहें और हमारे किये गये कामों से दोनों परिवार दुश्मनी और नफ़रत की आग में जलते रहें। ऐसा करके मैं तो खुश नहीं रह सकता...तुम रह पाओगी ... बोलो.....?"
यह सुनकर रोज़ी का चेहरा लटक गया। वो सर नीचे कर पाँव के अंगूठे से ज़मीन खुर्चने लगी। उसने रोज़ी को उठाया अपने बहुपाश में कसते हुए कहा- "ऐसा कभी भी मत सोचना माई लव!"
तभी स्कूल की घन्टी बजी दोनों क्लास की ओर चल दिये।
जब भी गोपी मधु को रोज़ी के बारे में पूछता वो उसे यह आश्वासन देकर टाल देती कि मैं सब संभाल लूँगी। आप कुछ ना बोलें। इस दौरान रोज़ी ने ऐसी कोई हरकत नहीं की जिससे घर में कोई कोहराम मचता। उसके इस बदलाव पर भी उन दोनों को शक सा होने लगा था कि क्या बात है कि रोज़ी ठीक समय पर स्कूल जाती है और ठीक समय पर घर लौट आती है।
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अनहोनी पाराशर गौड़

मिसेज कान्ति बत्रा अपने पति व दो बेटियों कला व मोनिका के साथ न्यू कोर्ट के कमरा नंबर 326 में अपने 20 साल के बेटे मनजीत के पेश होने का इन्तजार कर रही थी। मनजीत पर "बिना रजिस्ट्रड फायर आर्म" रखने व एक मासूम की हत्या का आरोप लगा हुआ था।
कमरा खचाखच भरा हुआ था। कान्ति के साथ और भी कई लोग अपने अपने चाहने वालो के केस के लिए वहाँ पर आये हुए थे। सबके सब जज के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। बेंच पर बैठी कान्ति पथराई निगाहों से जज की खाली कुर्सी को एक टक होकर निहार रही थी। सोचने लगी कि ये क्या हो गया। उसकी वर्षों की मेहनत से बना बनाया घर पल में ही उसके आँखो के सामने टूटकर चूरचूर हो गया। मनजीत के कोर्ट सज्जा के बारे में सोचते सोचते वो घटित पूरी घटना एक फिल्म की तरह उसके मानस पटल पर रेंगने लगी।
आज से 30 साल पहले ठीक आज के ही दिन जब वो और रजनीश भारत से कैनडा आ रहे थे तब कितनी उमंग और जोश था दोनों में एक नई जगह आने के लिए। एक नई ज़िन्दगी की शुरूआत के लिए।
कैनडा आने पर जैसा सोचा था वैसा हुआ नहीं। शुरू शुरू में तो कई बार दोनों ने वापस जाने का भी मन बना लिया था। रात दिन कड़ी मेहनत करके कुछ दिनों के बाद उन्होनें अपने पैर जमा लिये। इस दौरान कान्ति माँ बन गयी। मनजीत उनके जीवन में नई रोशनी व ढेर सारी उम्मीदों को लेकर आया था। पूरा घर उसकी किलकारियों से गूँज उठा। मनजीत को गोदी में लेकर कान्ति रजनीश से बोली ...
"मै तो इसे वकील बनाऊँगी ..."
"...अच्छा..." हँसते हुए रजनीश ने कहा।
फिर शरारती भाव में उसने कान्ति से कहा... , " इसे तो आप वकील बनाओगी माना और जो बाद में आयेंगे उन्हें क्या बनायेगी?"
फटाक से बिना देर किये कान्ति ने उत्तर दिया ... " एक को डाक्टर दूसरे को इंजिनियर और तीसरे को ..." वो कुछ कहती उसकी बात को बीच में ही काटते हुए रजनीश बोल पडा...... "अरे बस भी करो भाई.........फुटबाल की टीम बनानी है क्या?" ये सुन कर दोनों खिल खिलाकर हँस दिये।
कुछ समय के बाद कान्ति ने अपने माँ बाप भाई बहिनों को बुला लिया जो उसके कामों में हाथ बँटाते रहे। समय गुजरता चला गया। बदलते समय की धारा के साथ साथ उनका जीवन की धारा में भी बदलाव आया। मनजीत के बाद कला, मोनिका व रुची ने उनके जीवन में आकर और भी खुशहाली भर दी।
रुची आज 5 साल की हो गई थी, मोनिका 8 की, कला 15 की और मनजीत 20 का। रुची के जन्म दिन पर ढेर सारे उपहार देने के बाद कान्ति भगवान का धन्यवाद देना नहीं भूली।
"...प्रभो आपकी बड़ी अनुकम्पा रही मेरे और मेरे परिवार पर। मैंने जो चाहा आपने दिया। हम आपके ऋणी है। बस... अब इतनी और कृपा करना प्रभो कि ये पढ़ लिखकर अच्छी नौकरीयों पर लग जायें, खासकर मनजीत... मनजीत पर अपना हाथ ज़रूर रखना ...प्रभो।"
मनजीत यूँ तो पढ़ाई में होशियार था, लेकिन लड़ाई झगड़ों में भी पीछे न रहने कारण माँ बाप को हमेशा एक डर सताता रहता था कि कहीं बेकार के लफड़ों में फंस कर अपनी पढ़ाई चौपट न करदे। कला उसके ठीक विपरीत थी। वो घर पर मम्मी का घर के कामकाजों में हाथ बँटाती। अपने छोटी बहिनों को देखती। उनकी बेबी सिटिंग करती। स्कूल में औरों के लिए वो एक रोल माडल थी। सबकी मदद करना उसकी कमजोरी थी। स्कूल में टीचर उसे "मदर ट्रीसा" कह कर पुकारते थे।
समय का फेर क्या दिन दिखाये ये कोई नही जानता। कान्ति के हरे भरे परिवार पर भी एक दिन समय की ऐसी गाज गिरी कि उसके परिवार की नींव हिलकर रह गई।
क्रिसमिस के उपलक्ष्य पर सारा शहर अपने अपने अनुसार अपने परिवार के सदस्यों व इष्ट मित्रों के लिए उपहारो की खरीदो फरोख़्‍त में लगा हुआ था, तो कोई घरों की सजावटों में।
कान्ति भी हर साल की तरह इस बार भी व्यस्त थी। वो ताहेफ़ों की लिस्ट को देखकर काट-छाँट करके जो बच गया था उसको अलग पेपर पर लिखकर, कल की शापिंग की लिस्ट में शामिल करने में लगी हुई थी। उसे क्या पता था कि आने वाला दिन उसके लिए एक दर्दनाक तोहफ़ा लेकर आ रहा है जो उसे हमेशा के लिए बदल देगा। उस मनहूस दिन को याद करके उसकी आँखों से आँसूओं की धारा बहने लगी।
कला ने मम्मी की आँखों से उमड़ते आँसुओं के सेलाब को देखा तो आहिस्ते से मम्मी का हाथ अपने हाथों में लेकर धीरे से सहलाया। आँसू पोंछे और कहा "...ममा रोयें मत। सब ठीक हो जायेगा।"
उस दिन कान्ति जल्दी उठ गई थी। नाश्ता पानी घर की साफ-सफाई चौका चुल्हा करके वो रजनीश से बोली ...
"...अज्जी सुनते हो...कुछ गिफ्‍़ट रह गये हैं। आप तयार हो जाइये, शापिंग करने जाना है..."
"हम तैयार हैं।" रजनीश ने पलट कर कहा। थोड़ी देर में कान्ति नीचे आकर गिफ्‍़ट की लिस्ट को उठाते हुये बोली...चलिए...
जाने से पूर्व कान्ति ने कला को आवाज दी ..., "कला बेटे..."
अन्दर से आवाज आई ..."जी मम्मी......"
"बेटा हम बाहर जा रहे हैं, घर का ख्याल रखाना...और हाँ...... मोनिका और रुची उठ जायें तो उन्हे नाश्ता करवा देना।"
"...जी मम्मी।"
"उन्हें बाहर मत जाने देना।"
"...जी मम्मी।" दोनों गाड़ी में बैठकर डाउन टाउन की ओर चल दिये शापिंग के लिए।
मोनिका रुची उठ चुकी थी। कला ने उन्हे नाश्ता करवा दिया था। तीनों टी. वी. देख रही थीं कि अचानक मोनिका ने कला से पूछा, "...दीदी मैं और रुची ऊपर खेलें।"
"...हाँ......हाँ खेलो लेकिन चीजें इधर उधर मत फेंकना, वरना मम्मी मारेगी।"
"नहीं हम नहीं फेंकेगे ......" दोनों ने एक साथ कहा और कहते ही ऊपर की मंजिल की ओर दौड़ पड़ीं। कला टी वी देखने में मस्त हो गई और वो दोनों ऊपर के कमरे में एक दूसरे के ऊपर तकिया फेंकने में लग गईं। जाने कब टी वी देखते देखते कला की आँख लग गई वो सोफे में लुढ़क गई।
ऊपर दोनों कमरों-कमरों में घुस-घुस कर ’हाईड और सीक’ खेल रहे थे। खेलते-खेलते मोनिका मनजीत के कमरे में घुस गई। वहाँ उसने उसके बिस्तर का गद्दा उठाया। ज्यों ही वे उसके अदंर घुसने जा रही थी, उसे एक पिस्तौल पड़ी दिखाई दी। मोनिका ने रुची को आवाज़ दी... "रुची ..."
रुची भाग कर मनजीत के कमरे की ओर लपकी। मोनिका के हाथ में पिस्तौल को देखकर उसने उससे पूछा......
"ये क्या है दीदी......"
"ये...ये बंदूक है बंदूक।" उसने रुची से कहा..."सुन अब हम चोर सिपाही का खेल खेलेंगे क्यों?"

रुची बोली... "लेकिन सिपाही मैं बनूँगी।"
"नहीं मैं बनूँगी......", मोनिका ने रौब से कहा, "सिपाही बड़ा होता है और चोर छोटा। तू छोटी है इसलिए तू चोर बनेगी।"
तुनक कर रुची बोली..."तू हमेशा बड़े होने क्यों रौब जताती रहती है?"
"...क्योंकि मै बड़ी हूँ इसलिए... चल तैयार हो जा ...।"
सुनकर जैसे रुची जाने लगी पीछे से मोनिका ने कहा...
"...अररर सुन... तू भागेगी तो मैं कहूँगी रुक ...रुक... रुकजा वरना गोली मार दूँगी, तू ना एक बार मुझे देखियो और फिर भाग जाइयो ...ठीक है ना।"
रुची ने सिर हिलाकर उसका समर्थन किया।
दोनों कमरे कमरों व लाबी में भाग भागकर ऊधम चौकड़ी मचा रहे थे। रुची जैसे ही कमरे से बाहर लाबी में आई पीछे से मोनिका ने पिस्तौल का निशान रुची पर साधते हुए कहा... "रुक जा ...मै कहती हूँ... रुकजा वरना गोली मार दूँगी। रुची पलभर के लिए रुकी। उसकी ओर मुड़ी। अपनी निश्छल हँसी को हँसते हुए मुड़ कर भागी। इतने में मोनिका फिर कहा ... "रुकजा... वरना गोली मार दूँगी।"
रुची मुशकिल से 10 कदम भी नही दौड़ी थी कि धड़ाम की आवाज के साथ गोली निकल कर सीधे रुची की पीठ को भेदती हुई सामने की दीवार में जा धंसी। रुची को गोली लगते ही, वो धड़ाम से फर्श पर गिर गई। पीठ से खून का फुब्बारा फूट कर बहने लगा, जिसे देखकर मोनिका हतप्रभ रह गई।
गोली चलने के धमाके की आवाज से कला एकाएक चौंककर उठ बैठी। इधर ऊधर देखकर उसने मोनिका और रुची को आवाजें लगाई.. " ...मोनिका...... रुची..." दो तीन बार आवाज लगाने बाद भी जब कोई जबाब नहीं मिला तो वो भागकर ऊपर की ओर लपकी। जो कुछ उसने वहाँ जाकर देखा। उसे देखकर उसके पाँव के नीचे की जमीन खिसक गई। रुची... औंधे मुँह जमीन पर गिरी खून के तालाब में सनी पड़ी थी। दूसरी ओर एक कोने में अपने घुटनों के बीच में डरके मारे अपना सर छुपाये मोनिका डर के मारे थरथर काँप रही थी। पास में पड़ा था वो पिस्तौल जिससे गोली चली थी। कला को स्थिति समझते देर नहीं लगी।

"...हे भगवान...... ये क्या हो गया। मै मम्मी को क्या कहूँगी। क्या जबाब दूँगी मैं उन्हें?" उसे कुछ नही सूझ रहा था। हिम्मत करके उसने पुलिस को फ़ोन किया ...... " ".........हलो, पुलिस...। जी...मै हाऊस नम्बर 55 ग्रीन ड्राइव, स्कारबोरो से बोल रही हूँ जल्दी आइये मेरी छोटी बहिन को गोली लग गई है प्लीज़ ......हरी.........। "
चन्द मिनट में पुलिस आ पहुँची। आते ही उन्होने सारी सड़क को सील कर दिया। पुलिस रुची को लेकर पास के हस्पताल चली गई। कुछ पुलिस वाले कला व मोनिका से घटना के बारे में पूछकर सूत्रों को इकट्‍ठा करने में जुट हुई थी।

कान्ति ने रजनीश से कहा ...
"सबके लिये तो ले लिये, बस एक गुड़िया रुची के लिए लेकर चलते है।"
रजनीश ने कहा... "ठीक है लेकिन जरा जल्दी कीजिये बहुत देर हो गई है। वे सब कह रही होंगी कि मम्मी पापा जाने कहाँ गायब हो गये।"
जैसे ही वे घर की गली के पास पहँचे तो देखा गली बन्द। पुलिस वाला ट्रैफिक को दूसरी गली की ओर इशारा करके उन्हे उधर से जाने को कह रहा था। पहले तो उन्होंने सोचा कि शायद कोई "ब्रेकइन" हुई होगी। इसीलिए शायद गली बंद है, कान्ति ने रजनीश से पूछा ..."क्यों हुई होगी हमारी गली बंद?"
"मालूम नहीं ... लेकिन फ़ॉर श्योर...... कुछ ना कुछ तो अवश्य हुआ है।"
कान्ति बोली, "रुको, मैं पता करती हूँ कि क्या बात है।" गाड़ी से उतर कर जैसे वह पुलिस के पास पहुँची उसने उससे पूछा... "आफिसर ये गली क्यों बंद है ..."
"...... 55 में किसी को गोली लगी है।" उस आफिसर ने दो टूक में जबाब दिया।
"...क्या कहा...?"
"55 नम्बर में किसीको गोली लगी है मैडम।" पुलिस का उत्तर सुन कर कान्ति का मन जोर जोर से धड़कने लगा। सोचने लगी कि कहीं मनजीत को तो कहीं किसने...... उसने रजनीश की ओर देखा। रजनीश उसका इस तरह से देखने अभिप्राय नहीं समझ पा रहा था कि क्यों कान्ति उसे घबराई घबराई नजरों से देख रही है। वह पुलिस को धक्का देकर आगे जाने के प्रयास में पुलिस से उलझने लगी।
"...आप आगे नहीं जा सकते।" पुलिस ने रोकते हुए कहा।
इतने में रजनीश भी वहाँ पहुँच गया। उसने पुलिस से रोकने का कारण पूछा तो पुलिस ने कहा...
"55 में किसी को गोली लगी है।"
"...वो हमारा ही घर है। सब ठीक तो है।" रजनीश ने कान्ति को अपनी बाँहों में लेते हुए कहा।
" खबर ठीक नहीं है।"
"...क्या मतलब......?" कान्ति ने रजनीश की ओर देखते हुए पुलिस से प्रश्न किया।
"वैसे बच्ची को हस्पताल लेकर गये है लेकिन......"
"लेकिन क्या ......?" घबराई कान्ति ने पूछा।
"बचने की कोई उम्मीद नहीं है। खून बहुत निकल चुका है।
"इतने में कला ने रोते रोते माँ के पास आकर उसके सीने से लिपट कर रोते हुए उससे कहा "......मम्मी रुची को ...।"
"...किसने मारी मेरी मासूम सी बच्ची को गोली।" कला को छाती से चिपकाते हुए कान्ति फफक पड़ी।
"मोनिका ने.........।"
इतना सुनना था कि कान्ति बेहोश होकर रजनीश के हाथों में झूल गई। पुलिस व रजनीश उसके चेहरे पर पानी के छींटे दे देकर उसे होश में लाने का प्रयास करने में लग गये। थोड़ा होश आने पर उसे घर पहुँचा दिया गया।
रजनीश ऊपर गया देखा मोनिका कमरे के कोने में डर के मारे दुबकी पड़ी है। उसके पास जाकर जैसे ही उसने उसके सर पर हाथ रखा। मोनिका जोर जोर से कहने लगी "...... नहीं पापा मैने नहीं मारा रुची को ...।"
गोद में लेते हुए रजनीश ने कहा... "मैं जानता हूँ ...जानता हूँ... तुमने जान बूझकर नहीं मारा। जो होना था सो हो गया लेकिन ये बता कि तुझे कहाँ से मिली थी वो पिस्तौल?"
"......भाई के कमरे में बिस्तर के नीचे से......" कहते कहते पापा से लिपट कर रोने लगी थी मोनिका। वो उसे चुप करने के प्रयास में था कि इतने में फोन की घंटी बज उठी। उसने फोन उठाया......"हलो...।" मनजीत ने आवाज पहिचान ली थी-
"... पापा... मम्मी से बात कर सकता हूँ ?"
"उनकी तबियत बहुत खराब है।"
"क्यों क्या हुआ मम्मी को?"
"खुद आकर देख लो।" खट से फ़ोन रख दिया था रजनीश ने।
मनजीत जैसे घर पर आया तो देखा चारों ओर पुलिस ही पुलिस। जैसे ही वे अंदर जाने लगा पुलिस ने टोका ...
"तुम्हारा नाम?"
"...मनजीत ...।"
उसे पकड़ते हुए पुलीस ने कहा, "यू आर अन्डर अरेस्ट ...। तुम्हें हत्या के जु्र्म में गिरफ़्‍तार किया जाता है।"
"लेकिन मैंने तो किसी का खून किया ही नहीं ...।"
"तुम्हारी गन से तुम्हारी छोटी बहिन का कत्ल हो गया है।"
"ओ माई गाड...... यह क्या हो गया!" कहते कहते वो रोने लग गया। इतने में रजनीश उसके पास आकर कहने लगा, "मनजीत... मैंने और तुम्हारी मम्मी ने तुम पे न जाने कितने सपने बुने थे। तुमने उन सब को तार-तार करके रख दिया। जानते हो... इनके टूटने के पीछे कौन और किसका हाथ है.. तुम्हारा। तुम्हारी इस पिस्तौल से एक नहीं कइयों की मौत हो गई बेटा। रुची मरी तुम्हारी गन की गोली से। माँ मर रही है तुम्हारी इन करतूतों से। कला को तो जैस साँप सूँघ गया हो। मोनिका तो इतनी डर गई है कि बात बात पर बेहोश हो रही है। रहा मै... मै चल फिर जरूर रहा हूँ लेकिन अन्दर से अपने को बहूत टूटा टूटा नहसूस कर रहा हूँ।"
"रुची गई...तुम भी कम से कम 10-12 साल के लिए तो गये ही समझो। तुम्हारी एक छोटी सी नादानी ने पूरे घर की बुनियाद हिला कर रख दी। क्या मिला हमे यहाँ आ कर। सब कुछ खत्म हो गया!"
कान्ति अपने विचारों में खोई हुई थी कि एक आवाज गूँज उठी ..."ऑल राईज...-" सुन कर कान्ति की तन्द्रा टूटी। उसके अगल बगल के सब लोग उठकर खड़े हो गये थे उसे भी कला व रजनीश ने सहारा देकर खड़ा किया, क्योंकि जज अपनी सीट पर बैठ चुका था।
थोड़ी देर में एक-एक करके मुलजिमों को ला कर जज के सामने प्ोश किया जाने लगा। काफी देर के बाद मनजीत कमरे में दाखिल हुआ। बाल बिखरे हुए, दाढ़ी बढ़ी हुई। ये देख कर कान्ति के आँखों के आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। दोनों, पक्ष विपक्ष की जिरह सुनने के बाद जज ने अपना फैसला सुनाया......
"हालातों और सबूतों को ध्यान में रखते हुए अदालत इस नतीजे पर पहुँची है कि यद्यपि मुलजिम मनजीत का मृतक की मौत में सीधा हाथ नहीं है, लेकिन उसकी गन जो कि फ़ायर एक्ट के तहत रजिस्टर भी नहीं है, जो कि कानूनी जुर्म है। चूँकि उससे चली गोली चलने से एस मासूम की जान गई इसलिए मुल्जिम कसूरवार है... कानून उसकी उम्र को ध्यान में रखते हुए उसे 5 साल की सजा सुनाती है।" इसके साथ ही जज ने हथौड़े को मारते हुए ये ऐलान किया।
जैसे हथोड़ा बजा कान्ति को लगा यह आवाज वहाँ नहीं, बल्कि जज ने उसके हृदय पर मारी हो। सब जज को चैंबर से बाहर जाते देखते रहे। मनजीत कटघरे में अपने जाने की प्रतीक्षा में सर झुकाये खड़ा था।

Wednesday, January 14, 2009

पीड़ा

आज की शाम
वो शाम न थी
जिसके आगोश में अपने पराये
हँसते खेलते बाँटते थे अपना अमन ओ’ चैन
दुःख दर्द, कल के सपने !

घर की दहलीज़ पर देती दस्तख़
आज की साँझ, वो साँझ न थी ... आज की शाम

दूर क्षितिज पर ढलती लालिमा
आज सिन्दूरी रंग की अपेक्षा
कुछ ज्यादा ही गाढ़ी लाल दिखाई दे रही थी
उस के इस रंग में बदनीयती की बू आ रही थी
जो अहसास दिला रही थी दिन के क़त्ल होने का ?
आज की फ़िज़ा, ओ फ़िज़ा न थी .... आज की शाम

चौक से जाती गलियाँ
उदास थीं ...
गुजरता मोड़,
गुमसुम था
खेत की मेंड़
भी ग़मगीन थी
शहर का कुत्ता भी चुप था
ये शहर, आज वो शहर न था ... आज की शाम

धमाकों के साथ चीखते स्वर
सहारों की तलाश में भटकते
लहू में सने हाथ .....
अफ़रा तफ़री में भागते गिरते लोग
ये रौनकी बाज़ार पल में श्मशान बन गया
यहाँ पर पहले सा मौहोल तो कभी न था
ये क्या हो गया? किसकी नज़र लग गयी ... आज की शाम


वर्षों साथ रहने का वायदा
पल में टूटा
कभी न जुदा होने वाला
हाथ हाथ छूटा
सपनों की लड़ी बिखरी
सपना टूटा
देखते-देखते भाई से बिछुड़ी बहना
बाप से जुदा हुआ बेटा
कई मों की गोदें हुईं खाली
कई सुहागनों का सिन्दूर लुटा
शान्ति के इस शहर में किसने ये आग लगाई
ये कौन है ? मुझे भी तो बताओ भाई ... मुझे भी तो बताओ भाई ... आज की शाम

आवाज़

आवाज़ पाराशर गौड़


सुनो..
मेरी आवाज़ को गौर से सुनो
अगर पौधा मर गया तो
उसके साथ बीज भी मर जायेगा
धरती बंजर हो जायेगी
तब किसान भी मर जायेगा-
अगर वो मरा तो...................
उसके साथ समुचा देश भी मर जायेगा
फिर...............
ना तो कोई सुननेवाला होगा
ना सुनाने वाला।

Tuesday, January 13, 2009

स्वतंत्रता की छटपटाहट

मैं ---
महाभारत के पात्रों की तरह भी
नहीं जीना चाहाता
ना तो बापू को बन्दरों जैसा
और नहीं ...
आज के यू.एन.ओ के मैंम्बरों की तरह

मैं ..
भीष्म पितामह की तरह
उचित-अनुचित को जानते हुए भी
अर्थ-अनर्थ समझते हुए भी
मौनता को ओढ़कर
प्रतिबद्ध होकर खूँटे से बंधकर
आँखें मूँदे सब सहता रहूँ ।
बैठे बैठे अपनी विविशता का
इज़हार करता रहूँ

मैं ---
गाँधारी की तरह भी नहीं जीना चाहाता
आँखें होते हुए भी
आँखों पे पट्टी बाँधकर, अंधापन ओढ़ लूँ
एक समुचा पूरा युग, दूसरे के नाम कर दूँ

मैं---
बापू के बंदरों की तरह
आँख, कान, मुँह बंद कर
अiहंसा जैसे मंत्र के कवच को पहन लूँ
अपराध हो ना हो, चाँटा खाने को
एक गाल के बाद दूसरा आगे करलूँ
मेरे भी हाथ है तो फिर .. मैं क्यों चुप रहूँ

मैं
यू.एन.ओ के मैंम्बरों की तरह भी नहीं जिऊँगा
जो कान खोले, सिर झुकाये
किसी की आवाज का इन्तज़ार करते हैं कि
बिना कुछ देखे, बिना कुछ कहे
हाथ उठाओ, हाथ गिराओ और हाँ में हाँ मिलाओ
ये मुझ से नहीं होगा
क्योंकि मुझ में सोचने की शक्ति है

मैं ..
देखना चाहता हूँ
तुम्हारी दूरदर्शिता
तुम्हारे इर्द-र्गिद जुड़े उन चाटुकारों को
जो तुम्हारे अंधेपन और उससे जुड़ी
त्रासदी का लाभ उठाते

मेरी खुली आँख, ज़ुबान और हाथ
इस बात की गवाह हैं कि
आदमी स्वतंत्र पैदा हुआ था
स्वतंत्रता उसका जन्म सिद्ध अधिकार
था और है -------
उस युग में भी और इस युग में भी ।

अजीब बात

है ना ----
कितनी अजीब सी बात
कि, मैं .. ..
आदमी न होकर सुअर हो गया हूँ।

जहाँ कहीं, जब कभी
जिस किसी के अन्दर झाँक कर
मुँह डालकर,
उसके अंदर में समाये विश्वास
और अविश्वास के कीचड़ को
बाहर निकालकर, दुनिया पर फेंकता हूँ
वो, देख रहे हैं
और मैं, देखा रहा हूँ .. -- है ना...

मेरी फितरत बन गई है
जिस किसी पर घुर्राना
बात बात पर लांछन लगाना
दूसरों को नंगा करना और
नंगा देखना --

लेकिन, ये काम तो
सुअरों का होता है आदमी का नहीं
वही तो, मैं कर रह हूँ,
इस चक्कर में मैं, स्वयं कई बार
जनता के कटघरे में खड़ा हो गया हूँ ..---- है ना..

सुअर का काम है
अपने आस पास, और पास पड़ोस को
गन्दा करना और करवाना
वही तो कर रहा हूँ
अपने घर का गन्द अब
दूसरों के घरों में डाल रहा हूँ
पहले चुपके चुपके करता था
अब सरेआम करता हूँ

जिसको जो करना है कर ले
जिसको जो उखाड़ना है, उखाड़ले
पहले मैं पालतू था
अब तो जंगली हो गया हूँ ..---- है ना

Tuesday, January 6, 2009

last जब भगवान ने भारत से चुनाव लड़ा

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दूसरे दिन सारे के सारे अखबार चौंका देने वाली खबरों से भरे पड़े थ। नारद जी जब अपने बारे में खबर पढ़ी तो उनके पाँव के नीचे की जमीन खिसकने लगी। भागे भागे भगवान जी के पास गये और बोले- "प्रभो! जिसका डर था वही हो गया। हमारा भेद हमारे विरोधियों को पता चल चुका है। अब ये देखना है कि वे कैसे उड़ाते हैं हमारी धज्जियाँ।"
"मैंने पहले ही लक्ष्मी को कह दिया था पर मानी नहीं। वैसे आपको क्या लगता है? वे क्या कर लें इन एक दो दिनों में?" भगवान जिज्ञासावश पूछ बैठे नारद जी से।
"काश मुझे पता होता..", नारद जी बड़ी उदासी से बोले, "अब तो उनकी मीटिंगों में जाकर ही पता करूँगा भगवन...।"
"ठीक है सखे।" कहकर भगवान कल के आने का इंतज़ार करने लगे।
जब दोनों पार्टीयाँ एक हुईं और जब से उन्होंने जनता को भगवान और गरीब दल के बारे में बताया तब से जनता का रूझान थोड़ा थोड़ा उनकी ओर होना शुरू हो गया। मीटिंगों में भीड़ भी जुटने लगी थी। आज की रैली में काफी भीड़ थी जिसे देख के फतेसिंह और काशीराम दोनों फूले नहीं समा रहे थे। छुपते-छुपाते नारद भी घुसे भीड़ के बीच, ताकि सुन सकें कि क्या कह रहे हैं नेता और जनता का रुख क्या है। मंच से पहाड़ी गरजा-
"भाइयो! हमारी नीतियाँ बिल्कुल साफ हैं। यहाँ की जनता व उसके उत्थान व विकास के लिए, जो हमारे विरोधियों के पास नहीं। वे आपको रिझाने के लिए गरीब व गरीबी राग आलाप रहे हैं। हम भी मानते हैं, यहाँ गरीबी है। है तो है.. इसमें दो राय नहीं। मैं पूछता हूँ.. कौन सी जादू की छड़ी है उनके पास जिसे घुमा कर वे तुरन्त गरीबी हटा देंगे। भाइयो... मेरा तो आपसे केवल एक प्रश्न है कि जाकर गरीब दल व उनके नेताओं से पूछें कि कब हटा देंगे वो गरीबी को? अगर उनके पास इसका उत्तर है तो आकर बतायें, अगर नहीं है... तो बंद करें वे अपना ये रोना।" तालियाँ बज उठीं।
"समय लगता है किसी काम को पूरा करने में। हमारे ये बाल धूप में सफेद नहीं हुए, अनुभवों से हुए हैं अनुभवों से!" फिर तालियों की गड़गड़ाहटों से पूरा माहोल गर्मा उठा। "अब काशीराम जी से कहूँगा कि वे आयें और जनता के सम्बोधित करें।"
"दोस्तो! भारतखण्ड की तरक्की और उन्नति आपके हाथ में है। आप जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा। आप हमें वोट दें या न दें लेकिन हम ये कतई नहीं चाहेंगे कि कोई बाहर वाला वो भी विदेशी आकर हम और आप पे राज करे। क्या आप चाहेंगे?", जनता का स्वर उभरा- "नहीं!" साथ ही जनता में कुलबुलाहट भी शुरू हो गयी.."ये विदेशी बोलो तो कौन?"
"हम किसी और की बात नहीं कर रहे हैं", काशीराम जी ने कहा- "हम गरीब दे के नेता भगवान की बात कर रहे हैं। जिसे हम नर समझते रहे, असल में वह नर नहीं...", जनता साँस थाम बैठ गई कि नेताजी ये क्या कर रहे हैं।
"हौंसला रखें। हम सच कह रहे है वो नर नहीं.. नारायण है नारायण!" काशीराम ने कहा।
तभी भीड़ में से आवाज़ आई- "देखिये, पहेलियाँ न बूझाईये, साफ़ साफ़ कहिए क्या कहना चाहते हैं आप।"
"ये वही भगवान है, वही नारायण है जिसने करुक्षेत्र के मेदान में धर्मराज युधिष्ठर से ’अश्वथामा हतो हतो’ कहलाकर अपने भाइयो की जीत के लिए झूठ बुलवाकर उस समय के महान योद्धा द्रोणाचार्य को निहत्थे कर के मरवा दिया था। ये वही भगवान है... ज रुक्मणी को उठा कर ले गया था ये वही भगवान है जिसने छल से दुर्योधन जैसे महारथी को भीम द्वारा मरवाया। ये शख्स, झूठ बोलने में बहुत चालाक है। अपने झूठ को सच में बदलने में इसे महारत है।
भाइयो! छल तो धोखा हुआ ना--, और जो धोखेबाजी में माहिर हो जो अपने ही सगे-सम्बन्धियों, अपने ही रिश्तेदारों को धोखा दे सकता है तो उसके लिए आप किस खेत की मूली हैं। आप उस पर यक़ीन करेंगे? बोलिये, करेंगे...?"
जनता चिल्लाई..."नहीं..। कभी नहीं!"
"मैं पूछता हूँ.. अगर वो भगवान है तो क्यों आया है वो यहाँ चुनाव लड़ने? क्या जरूरत पड़ी थी उसे चुनाव की? वो तो, वैसे ही सब ठीक कर देता है पर.. नहीं। भाइयो.. इसमें भी कोई जरूर दाल में काला है। स्वार्थी जो ठहरा! अवश्य कोई स्वार्थ छुपा होगा उसको।"
नारद जी.. दोनों कानों पर हाथ रखकर सुनते रहे। काशीराम स्टेज से भगवान जी को कोसता रहा।
"भाइयो व बहिनों! अपने आप तो मक्कार, धोखेबाज, छल-कपटी है ही, लेकिन अब जरा इनकी घरवाली के बारे में सुनें.. अररे वो लक्ष्मी है ना--- लक्ष्मी, अब क्या कहूँ उसके बारे में। जो अपनी सहेलियों को घर बुला बुला उनकी बेइज्जती करती नहीं थकती। पार्वतीजी इसका उदाहरण है। उनके पति को भिखारी, नशेड़ी, निठल्लू न जाने क्या क्या कहके शर्मिन्दा किया इसने। अरे.., मैं तो कहता हूँ, भिखारी तो स्वयं ये हैं ये.. जो भीख माँगने न जाने किस किस के पास नहीं गया। राजा बली के पास कौन गया था? बामन बनकर तीन पग धरती को माँगने...? ये गया था ये! अब यहाँ भी चला आया हमसे वोट माँगने। भाइयो! ये भीख नहीं तो और क्या है?.. बताइये, ... बोलिए? अरे मैं तो कहता हूँ आप अपना कीमती वोट भले ही पानी में डाल दें लेकिन इस शख्स को बिल्कुल न डालें। ये मेरी आप से दरख़्‍वासत है।" भीड़ उसके एक एक शब्द को बड़ी गहराई व दिल से सुन रही थी।
"भारतखण्ड को लोगों को उन्होंने समझ क्या रखा है? क्या उसने इन्हें किसी बैंक का चेक समझ रखा है, जिसे जब चाहे भुना लें। हमारे यहाँ का आदमी मर जाएगा लेकिन वो अपने सम्मान पे ठेस नहीं लगने देगा। विरोधी सुनले!.. वह भूखा रह सकता है लेकिन वो बिक नहीं सकता और न ही उसका वोट बिकाऊ है।" इतना कहना था कि सारा पांडाल तालियों की करतल ध्वनि से गूँज उठा।
"भाइयो! चुनाव नज़दीक है। फैसला तुम्हार हाथों में है कि वोट किसे देनी है। हमारे विरोधी तो कल चले जायेंगे। आप और हमने तो यहीं जीना है यहीं मरना है--- जय एकता!", कहकर उन्होंने अपना जोशीला भाषण समाप्त किया।
नारद वापस आकर भगवान से बोले- "प्रभो,.. लगता है हमारा बोरिया बिस्तर बंधने वाला है। आज तो हद ही हो गई। उन्होंने आपको और माते को जम के कोसा। कोसा ही नहीं, ऐसे-ऐसे लांछन लगाये कि जिनको सुनकर कान फट जायें। आपके चरित्र पर उँगलियाँ उठा-उठाकर वार पे वार किये गये। आपको छली,धोखेबाज, झूठा, फ़रेबी, मक्कार स्वार्थी न जाने क्या क्या कहा गया प्रभो। और तो और, माते को भी नही बख्शा उन्होंने। एक रात में सब कुछ बदल गया। बाकाी जो कुछ बचा है कल वोटींग बूथ पर जाकर देखूँगा और सुनूँगा फिर दूँगा आपको सूचना।" नारदजी उठ कर चल दिये।
रात जैसे तैसे कटी। सुबह हुई। नारद उठे, चल दिय वोटींग बूथ की ओर। देखा, लोग वोटींग बूथ में लम्बी लम्बी कतारों में खड़े थे। पास जाकर उन्होंने मतदाताओं की नब्ज टटोलने की कोशिश की। एक से पूछा- "आप अपन वोट किसें देंगे श्रीमान?"
"मैं तो अपना वोट गरीब दल को दूँगा।"
जो उन्होंने सुना, नारद जी, सुनकर अपने कानों पर यक़ीन नहीं कर पा रहे थे कि जो उसने कहा, क्या वह सच था? इतना कहने सुनने के बाद भी लोग अभी भी हमारे साथ हैं। फिर सवाल किया नारद ने- "क्यों देंगे आप अपना वोट गरीब दल को?"
"ये दोनों चोर-चोर मौसरे भाई हैं। हम इन्हें अच्छी तरह से जानते हैं।" तभी भीड़ ने कहा- "हाँ, हाँ, हम भी गरीब दल को ही देंगे अपना वोट।"
सुनकर नारद गदगद हो गये। अन्दर से अरदास आई- "हे भारत के गरीब मतदाता, तुझे प्रणाम! तेरा भेद तू ही जाने!"
जहाँ जहाँ गए, मतदाता उनका मनोबल बढ़ाते रहे। एक बूथ में तो विरोधी और इनके चाहने वालों में हाथापाई तक हो गई। शाम होते होते आशा बलवती हो गई थी कि वे जीत रहे हैं। 8 बजे खबर आई-
"ये आकाशवाणी है। अब आप प्यारेलाल से चुनाव का विशेष बुलेटिन सुनिये। भारतखण्ड में चुनाव का अंतिम दौर समाप्त हो गया है। यूँ तो एकता पार्टी तथा गरीब दल में जबरदस्त टक्कर होने की सम्भवना है, अभी-अभी हमारे विशेष सम्वाददाता ने खबर दी है कि मतदाताओं का जोशोखरोश देखकर कहा जा सकता है कि गरीब दल भारी मतों से विजयी होगा। यह देखकर लगता है कि उनके नेता भगवान इस प्रदेश के भावी मुख्य मंत्री हो सकते हैं।" जैसे ही भगवान और नारद जी ने यह खबर सुनी उनकी बाँछे खिल गईं। लगे दोनों एक दूसरे को गले लगाने। नारद जी ने तो एडवान्स में बधाई दे डाली-" नये राज्य के, नये मुख्य मंत्री जी को बधाई हो। माते को फ़ैक्स कर दूँ.. आप कहें तो?"
"सखे.. अभी मतगणना होने दें। उनका रिज़ल्ट आने दें। तब कीजियेगा लक्ष्मी को फ़ैक्स।" भगवान ने नारद से कहा।
मतगणना जारी थी। बीच-बीच में रिज़ल्टों में उतार-चढ़ाव आता जाता रहा, जिसे देखकर दोनों पार्टियों में कभी खुशी, कभी मायूसी का दौर आता जाता रहा। तभी प्यारेलाल फिर टी.वी. पर उभरे.."मैं प्यारेलाल एक खास खबर को लेकर आपकी सेवा में हाज़िर हूँ। अभी अभी सूचना मिली है कि गरीब दल के नेता भगवान अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी एकता पार्टी के नेता फतेसिंह से लगभग 1लाख 80 हजार वोटों से हार गये हैं।"
जैसे नारद ने सुना, उसे काटो तो खून नहीं... ये क्या हो रहा है? ये क्या हो गया? हमारे सभी उम्मीदवार जीत रहे हैं और नेता जी हार गये।
उसने भगवान जी की ओर देखा भगवान जी चारों खाने चित्त .. हार की खबर को बरदाश्त नही कर पाये। बेहोश हो गये थे जगतपती। नारद जी, उन्हें पानी के छीटे दे दे कर होश में लाने का प्रयास करते रहे।
जैसे भगवान होश में आये, नारद बोले- "हम हार गये प्रभो..हम हार गये। मैंने माते से पहले कहा था कि वहाँ हमारी हार निश्चित है।"
"दिल छोटा न करो मित्र। हार जीत तो जीवन में लगी ही रहती है लेकिन मनुष्य के हाथों मात खाना, हमारे लिए थोड़ा कष्टदाई है। जाओ विश्राम करो।" स्वयं भी उठ कर चल दिये अपने कमरे की ओर।
चढ़ते सूरज को सब अर्घ डालते है डूबते को नहीं। यही जग की रीत भी है, जब तक किसी का सितारा ऊँचा है सब उसके साथ। जैसे गर्दिश में सितारा आया नहीं कि सब पल्लू झाड़ कर गायब। यही हुआ भगवान जी के साथ..कल तक लोग व चाहाने वालों की भीड़, अखबार, पत्रकारों, रिपोर्टरों, टी.वी वालों का तांता लगा रहता था और अब वो, नारद और इर्द गिर्द मडंराता सूनापन। तुलसीदास जी ने ठीक ही लिखा ’समय जात लागत नही बारा’।
शाम के समय नारद जी भगवान जी के कमरे में उनका हाल पूछने गये तो देखा भगवान वहाँ नहीं हैं। नारद ये देख कर थोड़ा विचलित हुए। इधर उधर देखने के बाद जैसे बाहर निकले, तो देखा-- सामने सूखे कीकर के पेड़ के नीचे प्रभो बाँसुरी को लेकर बैठे हैं।
नारद को आते देख भगवान बोले-- "आओ.. आओ नारद जी। समय का खेल तो आप ने देख ही लिया।" बाँसुरी को घुमाते कहने लगे- " कितना सटीक कहा था लक्ष्मी ने इस बाँसुरी को देते हुए तब। इसे साथ में रखना ना भूलियेगा ये तुम्हारे मायूसी के क्षणों में काम आयेगी।
एक बात बतायें मित्र", भगवान बोले-- "हम, हारे तो हारे कैसे? हमाे पास मुद्दे थे, भाषण थे, अदायें थीं, आवाज़ का जादू था, भीड़ थी, मतदाताओं का विश्वास था, पूरी कवरेज़ थी। जनता हमारे साथ थी। ये हुआ तो हुआ क्या? कहाँ मात खा गये हम।" इतना कहना था कि भगवान जी के सैल फोन की घंटी बज उठी-
"हल्लो ... कौन?" भगवान जी बोले।
"प्रणाम--- भगवन। मैं फतेसिंह पहाड़ी।"
"--जीते रहो!" भगवानजी ने आशीर्वाद दिया।
"अ-हँ.., ना --ना प्रभो..। ’जीते रहो’ नहीं, यूँ कहिए कि---’जीतते रहो’।"
"चलिए---जीतते रहो।" भगवान बोले.. साथ में कहा - "हे नरप्राणी उर्फ़ फतेसिंह जी। एक बात बताइये ..आप, जीते तो जीते कैसे?
पहाड़ी बोले- "प्रभो! आप पर विजय पाना हमारे जैसे प्राणियों के बस की बात नहीं। हाँ, अलबत्ता चुनाव में आप से जीत जाना हमारे बाएँ हाथ का खेल है। क्यों कि यह नर का खेल है, नारायण का नहीं।"
प्रभो बोल- "हमने आपसे कुछ पूछा है? उसका उत्तर दीजिए।"
"भगवन, आपके पास वो सब कुछ था जो चुनाव जीतने के लिए होना चाहिए, और आपने उनका इस्तेमाल भी किया। जनता, अखबार, मतदाता सबके सब आपके साथ थे। ऐसा भी नहीं कि उन्होंने आपका साथ नहीं दिया ..सब ने दिया। वोटें भी आप को ही पड़ीं। लेकिन हमने अपनी विद्या से, जिसे हमारी भाषा में स्किल कहते हैं जो आपने नहीं सीखी --- वो है ’बूथ कैप्चरिंग’, आपको हराया।"
"वो क्या होता है?" भगवान जिज्ञासा बस पूछ बैठे पहाड़ी जी से।
"माना, सारे जेनुइन वोट आप को पडे़। लेकिन वो बैलट बाक्स जिसमें वे वोटें थी हमने, एन केन प्रकारेण हथिया लिये, और, रातों-रात उनसे सारे वे वोट निकाल कर अपने नाम के वोट डाल कर पोलिंग आफिसर के दसख्त से सील करा के मजिस्ट्रेट के आगे पेश करके अपने हक में वोट गिनवा के बढ़त हासिल कर ली। इसे कहते हैं बूथ कैपचरिंग दीनाबन्धु।"
"मान गये प्राणी आपको और आपकी खोपड़ी को।" कह कर भगवान जी ने फोन काट दिया।
नारद बोल- "आज्ञा हो तो चलें वापस...।"
"हाँ --अब वैसे इसके अलावा चारा भी तो नहीं। लक्ष्मी भी हमारी बाट जोह रही होंगी।" पुष्पक विमान आया, दोनों उसमें बैठ के वैकुण्ठ की ओर चल दिए।
स्वर्ग लोक में पहुँचते ही लक्ष्मी ने प्रभो का स्वागत करते हुए कहा- "क्षमा भगवन! हमें बड़ा दु:ख हुआ कि आप पृथ्वी में चुनाव हार गये।"
"आपको कैसे पता..?" भगवान ने आश्चर्य से पूछा।
लक्ष्मी ने एच.पी. व फतेसिंह द्वारा हार की भेजी हुई फ़ैक्स की कॉपी उन्हें दिखाते हुए कहा- "इससे!"
प्रभो और नारद एक दूसरे का चेहर देखते रहे। मन ही मन आदमी की खोपड़ी की दाद भी देते रहे।
नाद बोले-"भगवन क्षमा मैं तो कई दिनों से ठीक से सोया भी नहीं। घर जाकर पहले थकान मिटा लूँ।" कहकर चल दिये।
भगवान और लक्ष्मी उनको जाते देखते रहे। लक्ष्मी की और मुड़कर भगवन बोले- "प्रिये! आपके खेल को खेलते मैं भी बहुत थक गया हूँ। मुझे भी थोड़े आराम की जरूरत है।" कहकर दोनों अन्दर चले गये।

aage जब भगवान ने भारत से चुनाव लड़ा

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इधर भगवान जी का तूफ़ानी चुनावी दौरा शहर-शहर, गाँव- गाँव होता हुआ हज़ारों लाखों की भीड़ को जोड़ता हुआ बढ़ता ही जा रहा था। सुनने वाले "कल.., ज़रा रुकिए। मैं स्कैज्युल देख लूँ। कल तो ...ओ--, मुश्किल हो जायेगी.... वो क्या है कि, कल बहुत बिजी है।"
तभी भगवान जी बीच में बोल पड़े..."हम तो एकदम खाली हैं।"
टेलिफोन के चोंगे पर हाथ रखकर- "सिस्स्स्स स्स्स्स्स्स्" - नारद भगवान जी से बोले- "इनको थोड़ा इन्तज़ार करवाना ज़रूरी है, तभी आदमी की कीमत बढ़ती है- आप नहीं समझोगे..राजनीति के खेल हैं।"
एच.पी.- "और परसों?"
"हाँ परसों सुबह 7.30 बजे कार्यकर्ताओं के साथ मीटिंग है। दोपहर में एक डेलिगेशन आ रहा है। शाम को पातलखंड के कार्यवाहक एडमिन्सिट्रेटर के साथ, उसके बाद गरीब दल के उच्च अधिकारियों के साथ मंत्रणा...खैर जब आपने आदेश दे ही दिया है तो कुछ न कुछ तो करना ही होगा आपके लिए। अब देखिये ना.. आप जैसे मित्रों को निराश भी तो नहीं किया जा सकता। शाम के 5.30 बजे कैसा रहेगा।"
"ठीक है। बहुत बहुत शुक्रिया नारद जी।"
"इसमें शुक्रिये की क्या बात है एच.पी. साहब। ये तो एक हाथ से देने और एक हाथ से लेने वाली बात है। आप हमारी पीठ खुजलायें और हम आपकी... कैसा कहा...।"
"जी बिल्कुल सही... अच्छा तो शाम को मिलते हैं।" - कहकर फोन रख दिया दोनों ने।
फोन को रखते नारद भगवान जी से बोले- "हाँ, जब वो आयेगा तो आप अपने नये कलफ़ लगे कुर्ते के पल्लू को साइड से फाड़ दें।"
भगवान आश्चर्य से नारद की ओर देखकर पूछने लगे- "ऐसा क्यों?"
"बताता हूँ, बताता हूँ!"- नारद बोले- "सवाल कम करा करें प्रभो। जब वो आएगा तो, आते ही वो आपसे पूछेगा..’अरे! नेता जी, क्या बात है? आपका कुर्ता फटा पड़ा है।’ आप बिना देखे कहेंगे- ’कहाँ...। अररे, हमें तो पता ही नहीं..। फ़ुर्सत कहाँ इन सब बातों के लिए।’ कह कर आप, उनका हाथ पकड़ कर सोफे की ओर ले जाएँगे..। क्या समझे?"
"इससे क्या होगा नारद जी?" - भगवान जी ने पूछा।
"इम्प्रेशन...प्रभो! इम्प्रेशन! ये टोटके हैं राजनीति के!"
अगले दिन जब फतेसिंह ने अखबार उठाकर देखा तो उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं। भगवान के साथ एच.पी. का लम्बा चौड़ा इन्टरव्यू? बड़बड़ाने लगे पहाड़ी जी- "हम से तो कहता था रहस्य पता करेंगे, और यहाँ देखो... उसके तारीफ़ों के क्या पुल पे पुल बाँधे हैं।" गुस्से में जगपती को फोन लगाया।
"हल्लो... जगपती। आज का अखबार देखा?"
"जी...।"
"क्या तलवे चाटे हैं एच.पी. ने हमारे विरोधी के।"
"अरे नेताजी, गुस्से पर काबू रखें। अगर उसने तारीफ़ों के पुल बाँधे हैं तो कहीं न कहीं एक आध ईंट की जगह अवश्य छोड़ी होगी अंदर घुसने के लिए। आपने उसे काम दिया है ना करने को, तो वो ज़रूर करेगा। तारीफ़ करके तभी तो अंदर घुसेगा ना? आप ही ने तो सिखाया है कि पहले विश्वास तो और समय आने पर विश्वासघात करने से मत चूको।"
"ठीक है..ठीक है।" - नेताजी ने जैसे ही फोन रखा था कि दरवाजे पर काशीराम दिखाई दिये।
"नमस्कार सिलमोड़िया जी। कहिए कैसे आना हुआ?"
"सिंह साहब.. लगता है कि हमारे राजनीति के दिन लदने वाले हैं।" - सोफे पर बैठते हुए काशीराम ने कहा। -"उनकी मीटिंगों में वो ताबड़-तोड़ भीड़, हमारे यहाँ खाली खाली तम्बू। जिन्हें देख देख कर हमारे कार्यकर्ताओं के मनोबल टूटने लगे हैं। कुछ कीजिये नहीं तो नाक ...."
"अररे...नहीं..नहीं, ऐसा नहीं होगा काशीराम जी।" अन्दर के कमरे में जाकर दोनों मन्त्रणा करने लगे। दरवाजे पर जैसे ही दोनों आये फतेसिंह ने काशीराम के कान में जाने क्या कहा कि जिसे सुनकर काशीराम ने सर हिला के अपना समर्थन दिया।
"हाँ...जैसा हमने आप से कहा बस वैसे ही करें। पहले अपने एक दो चमचों से भाषण करवायें, जैसे ही आपका भाषण शुरू हो बस तभी अपने किसी गुरगे से कहें कि लाइट काट दे। उसके बाद तब आप दिल भर के कोसें अपने विरोधी भगवान और उसके गरीब दल को। क्या समझे?"
इधर जैसे ही भगवान जी का चुनावी रथ भारतखण्ड की राजधानी पहुँचा, लोगों की भीड़ देखते ही बनती थी। सड़कों, रास्तों, पहाड़ों यहाँ तक की घरों की छतों पर आदमियों की भीड़ इकट्ठी होकर उनको सुनने के लिए बेचैन थी। जैसे ही भगवान ने बोलना शुरू किया कि भीड़ से "गरीब दल ज़िन्दाबाद" के नारों से समुचा पहाड़ गूँज उठा। अपने भाषणों में बीच बीच जब जब वो गरीब व गरीबों की बात करते तब तब जयकारों, नारों व तालियों से पूरा वातावरण गूँज उठता।
दूसरे दिन काशीराम ने आपा-धापी में एक मीटिंग रखवाई। किराये की भीड़ जुटाई गई। कुछ लोग वैसे भी आ गये सुनने को। जैसे ही काशीराम बोले कि एकाएक बिजली चली गई। बस फिर तो बरस पड़े काशीराम गरीब दल पे..."भाइयो य सारी की सारी शाजिस गरीब दल की है। ये शरारत हमारे विरोधियों की है। हमने अपने पूरे राजनैतिक जीवम में कभी भी ऐसी iघनौनी और ओछी हरकत नहीं देखी। क्यों भाइयो?"
भीड़ चिल्लाई- "बिल्कुल सही ...ये तो सरासर ज्यादती है। उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था।" भीड़ गुस्से में घर चली गई। दूर-दराज़ों से पैदल, मोटर-गाड़ी, रेलों में भर-भर कर आने लगे। उनकी अदाओं, उनके भाषणों का असर मतदाताओं पर सर चढ़कर बोलने लगा था।
ये देखकर प्रांतीय सरकार को उनकी कड़ी सुरक्षा का विशेष प्रबंध करना पड़ा। वह जहाँ भी जाते, जनता पागलों की तरह टूट पड़ती। अखबारों, मैगज़ीनों, टेलिविज़नों, प्रैस-रिपोर्टरों की भीड़ देखते ही बनती थी। उनकी कब्रेज़ मुख्य पृष्ठों पर छापे जाने लगी। टेलिविज़नों में होड़ सी लगने लगी थी। रेटिंग आसमान छूने लगी थी। ऐसे में, वे विज्ञपन वालों से चाँदी कूटने लगे थे।
ये सब देखकर नारद जी, अति प्रसन्नचित्त दिखाई दे रहे थे। भगवान जी से बोले- "प्रभो..., अखबार, टी.वी. की रिपोर्टों से लगता है कि हम चुनाव जीत गये हैं। आपका जवाब नहीं। क्या भाषण देते हैं आप! जो जहाँ रहता है, वहीं जम के रह जाता है। और बाई गॉड... मैं तो कहता हूँ अगर आप फिल्मों में जाएँ तो, अमित जी देखते रह जायेंगे। कुछ भी कहो प्रभो, जनता बड़ी खुश है। भगवन देखा उन कैसटों का कमाल, जिन्हें मैं मार्केट से लाया था। थेंक्यू अमित बच्चन जी, थेंक्यू राजकुमार जी, थेंक्यू दिलीप जी, थेंक्यू..थेंक्यू!!" - दोनों हाथ जोड़ कर नारद जी बोले।
"अभी तो शुरूआत है नारद जी, आगे-आगे देखिये होता है क्या!" - भगवान जी ने कहा -"वैसे--अगली मीटिंग कहाँ है?" उन्होंने प्रश्न किया।
"भारतखण्ड की राजधानी ’गेंरीसेंण’ में।" तभी टेलीफोन की घंटी बजी।
"--हैलो, कौन?"
"जी--, मैं एच. पी.।"
"कहिए, क्या सेवा करें एच.पी. साहिब?"
"एक विशेष इन्टरव्यू करना चाहते हैं हम, अपने होने वाले भावी नेता पर।"
"क्या बात कह रहे हैं आप? वो, और भावी...?"
"जी हाँ भावी--, हमारी आँखों से देखिए ना। कब ठीक रहेगा?"
"अरररे..., आप जब चाहें चले आयें। आपके लिए तो दरवाजे हमेशा खुले हैं।"
"कल कैसा रहेगा।"

भगवान जी ने जैसे ही पेपर खोला, देखा तो हैरान रह गए पढ़कर। मोटे मोटे अक्षरों मं छपा था, "गरीब दल की घिनौनी शाजिस", फिर लिखा था पूरा विवरण। दौड़ कर नारदजी के पास जाकर बोले- "नारद जी देखिये क्या छपा है हमारे लिए! जबकि हमने ऐसा कुछ किया ही नहीं।"
नारदजी ने पढ़ते हुए कहा- "हमको जनता में बदनाम करके, अपने लिए हमदर्दी पैदा कर, हमारे वोटों काट कर, अपनी ओर करने की शाजिस है। राजनैतिक हथकंडा है प्रभो...।"
"ये बात है.. तो जल्दी से प्रैस कान्फ्रैंस बुलाइए। हम स्पष्टीकरण करना चाहेंगे।"
"डैमेज तो जो होना था वो तो हो चुका है प्रभो। फिर भी आप कहते हैं तो बुला लेते हैं।"
दूसरे दिन प्रैस कान्फ्रैंस में भगवान ने स्पष्ट श्ब्दों में कहा- "ये सरासर उनकी अपने दिमाग की उपज है। इसमें गरीब दल का कोई हाथ नहीं है। हमें जनता में बदनाम करने की शाजिस है। हमने कोई बिजली-वजली नहीं काटी। ये मगरमच्छ के आँसू रो रहे हैं। हम अपने मतदाताओं से अपील करते हैं कि वे इनके बहकावे में न आयें। इनकी कही हुई बातों पर विश्वास न करें।"
खेल शुरू हो चुका था जो हर चुनावों में होता आया है, आरोपों और प्रत्यारोपों का । पेपरों के माध्यम से। आरोप पे आरोप व कीचड़ उछालने गे थे एक दूजे पे दोनों पार्टियाँ। अखबार वाले आये दिन एक दूसरे की कमजारियों को खोद खोद कर छापने लगे थे। लकिन पार्टी वाले तो अपने विरोधी पार्टी की किसी ऐसी खबर की तलाश में थे कि जिसको वो जनता में लपेट लपेट कर भुना सकें। चाहे वो व्यक्तिगत हो या चरित्र से हो।
नारदजी भगवान जी को कदम कदम पर फूँक फूँक कर चलने की राय देते रहे।
फतेसिंह और काशीराम की हालत देखकर लगता था कि अंदर से वे हार मान चुके हैं कि तभी एच.पी. का फोन बज उठा-
"हल्लो..नेता जी हैं।"
"कौन बोल रहे हैं?"- पहाड़ी जी ने कहा।
"मैं एच.पी.।"
"कहिए ... कहिए कोई खबर?"
"जबरदस्त खबर है आपके लिए। मैंने पता कर लिया है इस शख़्‍स के बारे में।" जैसे ही पता करने वाली बात सुनी...,फतेसिंह ने, उसके बुझते चहरे पर एक चमक आई और बोला- "हाँ, बताइए. बताइए।"
"वहीं आकर बताता हूँ।" कहकर एच.पी. ने फोन रख दिया।
फतेसिंह अपनी कोठी के बरामदे में एक कोने से दूसरे कोने में जैसे लखनऊ के अजायब घर में, पिंजड़े में बन्द "मैन ईटर" (पहाड़ी लदार, जिसने 20-25 बच्चों को मारा था) की तरह एच.पी. की इन्तज़ार में इधर से उधर घूम रहे थे कि अचानक गेट पर गाड़ी आती दिखाई दी तो उन्हें लगा कि एच.पी. आ गया। लेकिन वो एच.पी. नहीं बल्कि काशीराम की गाड़ी थी। पहिचानने के बाद लगे फिर घूमने। काशीराम ने पास जाकर फतेसिंह को ऐसे घूमने व परेशानी का कारण पूछा-
"सिंह साहब सब खैरियत तो है?"
"आयें...आयें। एक अच्छी खबर है हम दोनों के लिए। अच्छा हुआ तुम खुद ही चले आये वरना फोन करके बताता।" वे अभी बैठक में गये ही थे कि घंटी बजी।
"ये लो, शायद एच.पी. ही है।" दोनों दौड़ कर बाहर दरवाजे पर आये। एच.पी. और वो अंदर बैठक में चले गये।
"हाँ, क्या खबर है एच.पी. साहब।"- दोनों एक साथ कह उठे।
"मुझे, भगवान जी के यहाँ एक फ़ैक्स की कापी मिली, जो लक्ष्मी जी ने इन्हें कुछ ही दिनों पहले भेजी थी।"
इतना कहना था कि वे दोनों एक दूसरे का मुँह देखने लगे कि क्या खबर है। इसमें कौन सी बड़ी बात है लक्ष्मी ने फ़ैक्स किया तो...?
"आप नहीं समझे..?"- एच.पी. बोला
"नहीं।" - दोनों ने कहा।
"ये भगवान कोई और नत्थू खैरा भगवान नहीं है। ये स्वयं भगवान श्री कृष्ण हैं श्री कृष्ण!"
"स्वर्ग वाले..?" - काशीराम ने पूछा।
"हाँ.. वही स्वर्ग वाले, लक्ष्मीपति, दीन बन्धु..।"
"नहीं, नहीं ...मैं कैसे मान लूँ?" फतेसिंह बोला
"आप माने या ना माने, ये कापी है। यकीन न हो तो स्वयं ये कापी लेकर जाना और पूछना उनसे। मैं चलता हूँ।" कहकर चल दिया एच.पी.।
फतेसिंह को अभी भी यकीन नहीं हो रहा या कि अगर ये वास्तव में नारायण हैं तो इन्हें क्या जरूरत पड़ी कि वे पृथ्वी में आकर चुनाव लड़ें।
चुटकी लेते हुए काशीराम बोले-"अरे सिंह साहब, कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्होंने भाई बिल कलिन्टन जैसा कोई लफ़ड़ा ..." काशीराम हँसते हँसते कहते जा रहे थे-"सोचा..., कहीं इम्पीचमेंट हो, उससे पहले भारत जाकर चुनाव जीत कर कम से काम पासपोर्ट तो हासिल करलूँ, न जाने कब काम आ जाए।" इतना कहना था कि फिर दोनों ठहाका मार मार कर हँसने लगे।
फतेसिंह ने कहा-"छोड़िए मजाक बहुत हो चुका। जल्दी से एक प्रेस-कान्फ्रेन्स बुलायें। उसमें खुलास.. लेकिन पहले क्यों न दोनों मिल के इस समय चुनाव लड़ें? कुछ भी हो वो इस समय हम पर भारी है। जनता उनके साथ है। अगर चुनाव जीत गये, फिर अलग अलग हो जायेंगें। इसमें कौन सी बड़ी बात है।"
"ठीक है।" काशीराम ने कहा -"पार्टी का नाम ’एकता पार्टी’..कैसी रहेगी?" दोनों सहमत हो गये।
दूसरे दिन कान्फ्रेन्स हुई। पत्रकारों से मुखातिब होकर दोनों ने एकता पार्टी के झन्डे तले एक हो कर चुनाव लड़ने का ऐलान किया जो जनता व पत्रकारों के लिए भी एक चौंका देनी वाली खबर थी। किसी पत्रकार ने कहा- "ये तो वास्तव में चौंका देने वाली खबर है!"
फतेसिंह ने कहा- "अभी ते हम आपको एक और चौंका देने वाली सूचना देंगे।" सब ध्ौर्य के साथ बैठकर सूचना का इन्तज़ार करने लगे।
"हमारे विरोधी दल के नेता भगवान भारत से नहीं हैं।" इतना कहना था कि पत्रकारों में खलबली मच गयी। लगे प्रश्नों पर प्रश्न करने। "कहाँ से हैं? कौन हैं? क्यों लड़ रहा है चुनाव यहाँ से?" आदि आदि।
काशीराम जी बोले- "सब को उत्तर दिया जाएगा... पूरे परिणामों के साथ। लेकिन अभी आपको इन्तज़ार करना पड़ेग।" उठकर चल दिए दोनों नेता।
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जब भगवान ने भारत से चुनाव लड़ा

4

सुबह चाय की प्याली को लेकर भगवान जी के कक्ष में दाखिल होकर अखबार को बढ़ाते हुए नारद ने कहा- "वैसे बुरा नहीं छापा आपके बारे में पत्रकारों ने लेकिन कल तो बाल बाल बच गये वरना सारी पोल खुल जाती और चुनाव लड़ने से पहले ही हार गये होते।" "वो कैसे?" भगवान ने पूछा।
"वो तो घर के चौखट तक पहुँच चुके थे। केवल दहलीज़ लाँघनी बाकी रह गई थी। फिर घुसते भीतर, फिर बेडरूम में ..सारा भंडा फूट जाता। जो पढ़ रहे हो उसकी जगह छपा होता- बैकुंठ से भगवान पृथ्वी पर चुनाव लड़ने आये हैं। जाने क्या कर दिया होगा उसने वहाँ। फिर छपी होतीं एक से बढ़ एक बातें और कच्चा चिट्ठा।"
"ये बात थी।" नारद के हाथों को चूमते हुए भगवान बोले- "थैंक्यू..थैंक्यू ब्रर्दर।"
जब से भगवान व उनकी पार्टी ’गरीब दल” ने भारतखन्ड को अपना चुनाव-स्थली चुन तब से आये दिन अखबारों में उनके बारे में छपने लगा था। जिन्हें पढ़ पढ़ कर वहाँ की नेशनल एवं रिजिनल पार्टियों में एक भूचाल सा आ गया था। उनकी नीदें उड़ गईं। उनके कान खडे़ हो गये कि ये शख़्‍स और ये पार्टी आखिर है कौन? कहाँ से आये हैं? जिन्हें कोई नहीं जानता था उन्हें लोग रातों रात जानने लगे थे।
भारतखन्ड में ’भगवान और गरीबदल’ एक जाना माना नाम हो गया था जिसे सुन सुन कर वहाँ के दिग्गज नेता काशीराम सिलमोड़िया व फतेसिहं पहाड़ी की नींद हराम हो गई थी।
दोनों कई सालों से इस क्षेत्र की राजनीति में ध्रुव तारे के समान चमक रहे थे। मजाल है इनके रहते रहते कोई यहाँ सेंध मार दे। यद्यपि दोनों एक दूसरे के कट्टर दुशमन, कट्टर विरोधी, दोनों एक दूसरे को यूँ तो फूटी आँख नही सुहाते थे लेकिन जब से ये भगवान वाला चक्कर शुरू हुआ तो दोनों एक दूसरे के करीब आने के लिए रास्ते तलाशने में लगे हुए थे। जब कुर्सी व बिल को खतरा दिखाई दे तो नेता-नेता से, साँप नेवले से, आपस में हाथ मिलाने से नहीं चूकते। बस यही हाल था इन दोनों का भी ।
काशीराम के घर के आगे मोटरों का काफिला रुका। काशीराम ने दौड़ कर फतेसिंह की कार के पास जाकर, उसका दरवाजा खोला और हाथ जोड़ कर उससे स्वागत की मुद्रा में बोले-
"नमस्कार। हमारे गरीबखाने में आपका स्वागत है, भाभी कैसी हैं, बच्चे कैसे हैं।
फ़तेसिहं ने चलते चलते उत्तर दिया- "वे सब तो ठीक है लेकिन हम ठीक नहीं हैं।"
ये सुन के काशीराम भी बोले- "सच मानिए तो वही हाल हमारा भी है जब से पिछले दो चार दिनों के अखबार पढ़े।" सोफे पे बैठते हुए उसने कहा।
"देखिए पहाड़ी जी, हमारे और आपके बीच जो भी घट रहा हो वो घर की बात है। उसे हम संभाल लेंगे। लेकिन, कोई अजनबी.. वो हमारे घर मे सेंध लगाये, इसे हम बिलकुल बरदाश्त नहीं करेंगे। आप क्या कहते हैं इसके बारे में?" - सिलमोड़िया ने फतेसिंह की ओर मुड़ कर कहा ।
"जहाँ तक सेंध का प्रश्न है वो तो लग चुकी है काशीराम जी।" फतेसिंह ने कहा।
"तो कुछ कीजिए ना।"- काशीराम बोले।
"उसी के लिए तो आये है यहाँ। कुछ सोचना होगा इसके तोड़ का।"
तभी काशीराम को याद आया, फतेसिंह से बोले-
"अरे आपके विधायक है ना? वो क्या नाम है उनका ..जगतपती...।"
"हाँ..हाँ।" सर हिलाकर फतेसिह ने उत्तर दिया।
"उनके बडे़ भाई साहब के दामाद है ना ’खबर ले, खबर दे ’ के अखबार में।"
"एच.पी की बात तो नहीं कर रहे है आप?"
"हाँ, हाँ ऊन्हीं की उन्हीं की, उनसे कह के उन्हें फोन लगवा कर उनसे पता करवायें इस पूरे नाटक का।"
फतेसिंह ने फोन मिलाया जगतपती को-- "हलो.. जगतपती, हम फतेसिंह बोल रहे है..।"
"नमस्कार, नेता जी। कहिए कैसे है आप।"
"हम वैसे तो ठीक है लेकिन एक समस्या .. "
बीच मे बात काटकर के जगतपती ने कहा-
"हम समझ गये हैं सारी समस्याएँ। भगवान वाले की बात कर रहे हैं ना आप?कहिए हम क्या कर सकते हैं आपके लिए?"
"आपके बडे़ भाई के दामाद है ना, ’खबर ले-खबर दे” अखबार मे चीफ़ रिपोर्टर उनसे बात करवाओ तो ... ।"
"अभी करवाता हूँ। आप लाइन पर ही रहियेगा।"
थोड़ी देर में जगतपती और एच. पी. बतियाने लगे-
"हलो..कौन - ?"
"मै, जगतपती।"
"ओ, चाचा जी प्रणाम। कहिए कैसे याद किया..। "
"बेटाजी, हमारे नेताजी .." बात पूरी होने से पाले फतेसिह बीच में कूद पडे़।
"अररे एच.पी. साहब, कैसे है आप?"
"सब आप की कृपा है नेता जी।"
"कृपा तो आप जैसे की होनी चाहिए। हम जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं पे। आप का फोन कही टेप टाप तो नहीं होता है ना।"
"नहीं नहीं, आप खुलके कहिए जो भी कहना हो।"
"आपको तो पता ही है चुनाव सर पर है। वैसे भी कई लफ़ड़े हैं ऊपर से ये भगवान वाला क्या लफड़ा है थोड़ा पता करेंगे।"
"वैसे तो, असल में, हमें भी कुछ पता नहीं। आप कहते हैं तो, एक- दो, दिन में पता करके आपको बताता हूँ।"
"ज़रा जल्दी हो जाए तो बड़ी कृपा होगी।" - फतेसिंह ने बडी दयनीय भाव मे कहा ...।
"नेता जी शर्मिन्दा न कीजिये। आपने एक काम दिया है अवश्य करेंगे। यकीन कीजिए। " - कह कर फ़ोन रख दिया एच.पी.ने।
फतेसिंह ने मुड़कर काशी राम से कहा- "देखिए, हम दोनों की हालत पतली है ये तो आप भी जानते है। ऐसे में राजनीति करने की भूल मत कीजियेगा जैसे आप ने पिछले चुनाव में की थी। कहा था की ऊपर की चार सीटों पर अपने केंडिडेट खड़ा न करें, लेकिन नहीं माने। नतीजा क्या निकला था। आप भी हारे, हम भी। "
"जहाँ त ाजनीति सवाल है तो आप ने भी कहाँ कसर छोड़ी।", पलट कर वार किया काशीराम ने -"आप से कितनी मिन्नतें की थीं तब हमने कि हमारी सरकार को अभी मत गिराइये। मत खींचिये हाथ को। सर्मथन वापस ले लिया। ये राजनीति नहीं थी तो और क्या थी? राजनीति आप करते है हम नहीं। खैर छोड़िये, फिलहाल पहले जो समस्या है उसके बारे में सोचते हैं।"
"परसों तक रुकते हैं। देखें, एच.पी क्या खबर लेकर आता है।" फतेसिंह बोला। उठकर जाने लगा तो काशीराम ने फिर कहा।
"अगर हम सरकार बनाने की क्षमता में आये और कही दो चार सीटों की जरूरत पड़ी तो--"
" देखेंगे, देखेंगे।" कह कर जाते जते फतेसिंह ने कहा और चल दिये ।
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aage जब भगवान ने भारत से चुनाव लड़ा

3
भगवान इन दिनों, नारद जी द्वारा मार्किट से लाई गई फिल्मी एक्टरों की टेपों को देख देख कर अभ्यास करने में लगे हुए थे। नारद जी उनकी इस प्रकार की लगन व अभ्यास को देखकर अति प्रसन्न हुए और बोले -"भगवन! आप परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये लगते हैं। अब आँखें बंद कर कूद जायें चुनावी मैदान में आपकी विजय निश्चित है।"
ये सुनकर भगवानजी का मनोबल बढ़ा। उन्होंने नारद से कहा -"क्यों ना कूदने से पहले एक दो प्रैस कान्फ्रैन्स रखी जायें ताकि जाने से पूर्व मतदाताओं पे असर हो और ज़्यादा से ज़्यादा लोग हम, हमारे विचारों से अवगत हो जायें कि हम कौन है और क्यों चुनाव लड़ रहे हैं।"
"अवश्य भगवन।"- नारद जी ने कहा।
"तो क्यों ना आज के दोपहर के खाने पर ..!"
"ना..ना!"- नारद ने भगवान जी को टोकते हुए कहा -" दोपहर का नहीं, रात्री के भोजन पर प्रभो.. रात्री के। आप इनकी फ़ितरत को नहीं जानते क्योंकि पत्रकार जीव खाने का नहीं, पीने का ज़्यादा शौकीन होता है और ये, उसे अपना स्टेटिस सिंम्बल भी मानते है। इसके सेवन के पश्चात उसकी बुद्धी,चक्षु व उँगलियाँ खुलकर अपना प्रभाव दिखाती हैं। फिर देखिये कल के अखबारों में, ऊँचे ऊँचे हेडिंगों में आपका नाम, आपके विचारों का ख़ुलासा, आपकी तारीफ़ों के पुल जिसे पार कर मतदाता आप तक पहुँचेगा।"
नारद जी लगे टेलीफोन पे टेलीफोन करने, प्रैस रिलीजों को फैक्स पे फैक्स करके रात्री के भोजन का सब को निमन्त्रण पे निमन्त्रण लगे देने। 50-60 पत्रकारों से स्वीकृति पाने के पश्चात नारदजी जुट गये रात्री की भोजन व्यवस्था में।
निर्धारित स्थान व समय पर एक एक करके पत्रकार महोदय साथ में कैमरे, लाइट तथा अन्य ताम झाम को लेकर पहुँचने लगे । नारद जी आने वाले हर पत्रकार का बडे़ विनम्र भाव से स्वागत-सत्कार करते रहे।
आज के नेताजी, याने भगवान जी को आने में अभी थोड़ी देर लग रही थी। इस बीच में नारद जी ने समय का सद्‌उपयोग करना श्रेयस्कर समझा । उन्होनें पत्रकार महोदयों से कहा.. "देखिये, नेताजी के आने मे अभी देरी लग रही, क्यों न.. हम तब तक मधुशाला याने मेरा कहने का मतलब हाट ड्रिंक का सेवन करें।" इतना कहना था कि गिद्ध की तरह टूट पडे़ पास में पड़ी बोतलों पर वे सब। आधे घन्टे के अन्तराल में ही ठीक ठाक हो गयी थी पत्रकार मण्डली। इस दौरान भगवान जी भी पधार गये थे ।
सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए नारद जी कहने लगे- "हे, प्रत्याशियों के भाग्यविधाताओ! हे, चुनाव व चुनाव में लड़ने वालों पर अंकुश लगाने वाले महारथियो। आज के इस प्रैस कान्फ्रेंस में आप सब का हाiर्दक स्वागत है। हमारे नेताजी" -नारद कुछ कहना चाह रहे थे कि तभी किसी पत्रकार ने सवाल किया--
"आपका परिचय?"
"हम नारद हैं.. ।"
"लगते तो नहीं।" पत्रकार ने छूटते कहा..। यह सुनकर हाल में हँसी का फुहारा छूट पड़ा । नारद जी बात को चालू रखते हुए कहने लगे -
"आपने हमारी प्रैस रिलीज़ तो पढ़ ही ली होगी कि क्यों हमने नई पार्टी बनाई? यों हम चुनाव लड़ रहे है? क्यों इसकी जरूरत हुई ?"
"मेरा नाम सूघे लाल है, मै उधेड़बुन अखबार से हूँ। कृपया आप अपने नेता जी का परिचय देने का कष्ट करेंगे।"
नारद बोले- "क्यों नहीं.. क्यों नहीं।" भगवान जी की ओर इशारा करते हुए बोले- "ये भगवान विष्णु जी है .."
तभी सूघे लाल कह उठा- "वैकुंठ वाले, या बोरीवली झोपड़ पट्टी में रहने वाले।" इतना कहना था कि फिर हँसी फूट पड़ी हाल में।
"फिलहाल हमें भारत के किसी भाग का मानकर चलें तो यही उत्तम रहेगा।" उन्होने उसका उतर एक सुलझे एवं पारखी के रूप में दिया । तभी किसी ने प्रश्न किया- "आप चुनाव क्यों लड़ रहे हो? कुछ रोशनी डालेंगे इस पर ?"
"हमारे भगवान बडे़ दयालु हैं। वे अपने भक्तों याने मतदाताओं के दुखों को नहीं देख पा रहे हैं। यूँ तो यहाँ उनका शोषण सदियों से होता आया है लेकिन जब से उन्होंने आज़ादी पाई तब से उसकी हालत दिनों-दिन और भी बिगड़ती जा रही है। जिन नेताओं ने उसकी खुशहाली के लिए काम करना था, वे ही उसे लूट खसोट रहे है। गरीबों को गरीबी की रेखा से उपर लाकर उठाने के संकल्प लेकर उतरे हैं हम इस चुनाव में।"
"तो गरीबी आपका चुनावी मुद्दा है।"
"जी ..हाँ।" नारद बोले ..।
तभी आवाज आई- "नारदजी आप ही बोलेंगे या नेताजी को भी कुछ कहने का मौका दोगे। "
"क्यों नही क्यों नहीं!"
जैसे ही भगवान जी बोले फ्‍लैश लाइटों ने आँखे चौंधिया दीं। कैमरे वाले लगे एक दूसरे के कन्धों पे चढ़ने । प्रशकार्ताओं ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। भगवान भी सोच सोच कर, नारद की ओर देख देख कर नपे तुले शब्दों मे अपना उत्तर देते रहे ।
"आपका परिचय?"
"आम आदमी में से मैं भी एक हूँ। क्या इतना प्रयाप्त नही ?"
"आप किस पार्टी से है..जनता, भारतीय जनता, जनवदी जनतंत्र...?"
"जी.. मैं मानववादी हूँ .. ’गरीब दल’ हमारी पार्टी है। जिसमे अमीरों के लिए कोइ जगह नहीं है।"
"चलो माना आप गरीबों के हिमायती हैं। चुनाव चिन्ह के बारे में कुछ बतायेंगे आप?"- धाँसू पत्रकार सेंधमार जी ने प्रश्न किया।
भगवान जी कुछ कहते उस से पहले नारद जी बीच मे कूद पडे - "देखिए..चुनाव चिन्ह कुछ भी हो सकता था, जैसे हाथ, पाँव, उँगली, पैर, लठ्ठ, लोटा, बंदूक, तमंचा वग्ौरहा वग्ौरहा... लेकिन, ये सब तो, किसी न किसी ने हथिया लिए थे। इसीलिए हमने सोच समझ कर इन सबसे हट कर एक अलग से चुना है अपना चुनाच चिन्ह।"
"वो क्या है?"
"डा - ल - र।"- इतना कहना था कि सब पत्रकार एक दूसरे का चेहरा देखने लगे।
सेंधमार ने फिर प्रश्न किया - "डालर को देख कर ऐसा नहीं लगता कि आपको विदेशी ताकतों ने खड़ा किया है?"
"बस्स्स्स्स..! यही तो कमी है हमारे यहां के बुद्धिजीवियों में कि वे ज्यादा सोचे-समझे बिना झट से निष्कर्ष पर पहुँच कर अपना फैसला भी दे देते हैं। हमें किसने नहीं, हमें तो हमारी माताश्री ने उतारा है इस चुनाव में।"
सेंधमार कहाँ छोड़ने वाले थे ...फिर सवाल किया.. "माना आपको आपकी माता जी ने उतारा, मान गये, लेकिन डालर ’फ़ौरन करंसी’ क्यों चुना आपने अपना चुनाव चिन्ह? भारतीय रूपये को क्यों नहीं?"
"बड़ा अच्छा प्रश्न किया है आपने। रूपये की कीमत इन्टरनेशनल मार्केट में ना के बारबर है। अपने ही देश में उसकी साख दिन प्रति दिन गिरती जा रही है, ये तो आप भी जानते है । यहाँ पर तो आपको मेरे साथ सहमत होना पड़ेगा। देखिये करंसी तो कंरसी है। चाहे वो रुपया हो या डालर। लक्ष्मी तो लक्ष्मी ही हुई ना? डालर को, अमीर गरीब सब पहिचानते है। उसकी की भाषा सब जानते हैं। इसके पीछे जब सब दौड़ रहे हैं, तो हमने सोचा इसे देख कर यहाँ का मतदाता भी दौड़ पड़ेगा हमारे पीछे।"
"आपके भगवान जी ने कभी पहले चुनाव लड़ा?" - किसीने प्रश्न किया।
"नहीं।"
"तो अब क्यों लड़ रहे हैं।"
भगवान बोले-- "हमें तो मतदाताओं की गरीबी ने मजबूर किया है चुनाव लड़ने को।"
"कहाँ से लड़ने का इरादा है?"
"वो तो तय है ही ..देवभूमी से लड़ेंगे।"
"देवभूमी? माने -- भारतख्ण्ड से? जो अभी अभी बना है राज्य?"
"जी हाँ।"
तबतक बीच में सुरतेलाल ने सवाल किया - "आप शादीशुदा है या कँवारे?"
भगवान नारद का चेहरा देखने लगे ... नारद बचाव मुद्रा में बोल उठे--
"मानते हैं आपकी पैनी दृष्टि को .." पत्रकार की ओर मुखातिब हो कर बोले- "कया नाम बताया आपने..?"
"सुरतेलाल।’"
"हाँ सुरतेलाल जी..हमारे कुछ पत्रकार भाईयों की ये कोशिश रहती है कि कैसे किसी के घर के अंदर घुसा जाये। कैसे उँगली पकड़ कर पहुँचा पकड़ा जाय। माना, ये शादीशुदा है, तो उससे क्या होगा? क्या हमारी महिला मतदाताओं की सारी की सारी वोटें इन्हें पड़ जायेंगी? और माना नहीं हैं शादीशुदा तो? तो क्या सारे कँवारों की वोट इन्हें ही मिलेगी? माना हम कहते हैं कि इनकी सौलह सौ पटरानियाँ हैं तो कोई करेगा विश्वास? आप करेंगे? आप, आप और आप?" उँगली उठा उठा कर सबसे प्रश्न करते रहे नारद। उनकी इस आक्रमण मुद्रा को देख के हाल में सन्नाटा सा छा गया था। " ..नहीं ना? मुuझे पता था कोई विश्वास नहीं करेगा।" भगवान जी की ओर देखकर उन्हें उठने का संकेत देते हुए नारद जी बोले-"नो मोर कोएश्चन? चलिए प्रभौ ..उठिये..उठिये..।"
भगवान जी बोल- "लेकिन वे हम से कुछ प्रश्न पूछना चाह रहे हैं सखे ..।"
"अरर..रे इस समय यहाँ से जाने में भलाई है भगवन।"- नारद ने फिर कहा -"ये, आपको लपेटने के चक्कर में हैं। आप समझता क्यों नहीं?" दोनों वहाँ से उठ कर चल दिये।

aage जब भगवान ने भारत से चुनाव लड़ा

जैसे धरती पर पाँव रखा ही था कि सामने से दो पुलिसवाले आते दिखाई दिये। वो विष्णु और नारद जी को रोक कर सवाल पर सवाल करने लगे..कहाँ से आ रहे हो?...कहाँ जा रहो हो?...क्या करते हो?...आदि आदि। नारद ने उत्तर दिया- "घर से आ रहे हैं और चुनाव कार्यालय की ओर जा रहे हैं।
पुलसिया बोला- "चुनाव लड़ोगे बेटा...?"
नारद जी बोले- "इरादा तो यही है।"
"इधर आ बे नेता के बच्चे। ये थैले में क्या है?" तलाशी लेते लेते उसने भगवान जी की ओर इशारा करते हुए कहा - "इसका क्या नाम है?"
नारद जी न उत्तर दिया - "भगवान...।"
"अब्बै बिष्णु भी बोलना साथ में!" खी..खी करके हँसने के साथ ही उसने दूसरे पुलसिए की तरफ देखा।
"आप सही कह रहे हैं। इनका नाम विष्णु भगवान ही है।" नारद ने कहा।
"बड़ा आया बिष्णु भगवान का बच्चा। चल है भी तो हमें क्या लेना-देना। ये बताओ पैसे-वैसे हैं जेब में कि नहीं।"
"पैसे कैसे पैसे...?" नारद जी ने कहा।
"पैसे नहीं समझते...डालर समझता होगा साला!" पहला दूसरे को देखकर बोला -"अब्बै.. ये कहीं.. अरे नहीं यार शक्ल से तो नहीं लगते।"
"बेटा ..शहर में पोटा लगा हुआ है। एक बार अंदर हो गए तो.. मरकर ही बाहर आओगे नेता जी। बताये देते हैं हम।" नारद जी को धक्का देकर वो बोला -"भग जा यहाँ से सुबह-सुबह बोहनी खराब कर दी। पता नहीं किस मनहूस का मुँह देखकर उठा हूँगा सुबह-सुबह।"
दूसरे ने तपाक से उत्तर दिया -"अपनी बीवी का..और किसका!" सुनकर दोनों हँसने लगे।
विष्णु और नारद जी आये दिन ये ही सोचते रहे कि चुनाव कैसे और कहाँ से लड़ा जाए? चुनाव का मुद्दा क्या हो? जैसे जैसे चुनाव की तारीख नज़दीक आती रही उन्हें बस यही संकोच सताने लगा। एकाएक नारद जी ने कहा -"क्यों न मुद्दा.. गरीबी, दु:ख-तकलीफ़ को रखें? जो यहाँ है, थी और रहेगी भी। ये तो नहीं हटेगी और नहीं समाप्त होगी और न ही इसका कोई हल है।"
भगवान बोले -"ये कोई नयी बात नहीं। इसके बारे में तो यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है। सदियों से वो यही देखता आ रहा है। माना हमने मुद्दा उठाया भी तो कौन करेगा हम पर यकीन? चलो माना थोड़ी देर के लिए माना वे मान लें कि हम गरीबी को हटा देंगे, अगर किसीने यह सवाल कर दिया कि कब और कितना समय लगेगा गरीबी को हटने में.. तो है हमारे पास इसका कोई जवाब?"
"है भगवन्‌..है..जवाब है। क्यों न आप ब्रह्मा जी से पूछें। उनके पास इसका जवाब है। क्योंकि वे अजर अमर हैं। उन्हें अवश्य पता होगा कि कब हटेगी।" नारद जी ने आशापूर्व कहा.."बस यही होगा हमारा चुनाव जीतने का ब्रह्मशस्त्र! हम लोगों को बता देंगे कि कब हटेगी गरीबी। वो भी खुश और हम भी खुश.. क्यों?"
"आपकी बात में दम तो है नारद जी।" भगवान बोले -"चलो ब्रह्मा जी का ध्यान लगाते हैं।" आसन लगाकर प्रभो ध्यान लीन हो गए। कुछ देर बाद ब्रह्मा जी प्रकट हुए और बोले -"वत्स कहो कैसे याद किया?"
भगवान बोले - "हे पितामह! हम धर्म संकट में फँसे हैं। लक्ष्मी जी ने हमें ज़िद करके इस मृत्युलोक में चुनाव लड़ने भेज रखा है। हमने अपना चुनाव का मुद्दा गरीबी रखा है.. जो यहाँ है भी। हमें किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना है। ये स्वर्ग लोक की इज़्ज़त का प्रश्न भी है। लेकिन हम ये नहीं जानते कि यहाँ से गरीबी कब दूर होगी? अगर वो दिन, वो वार और समय हमें पता लग जाये तो हम जनता को यकीन दिलाने में कामयाब हो जायेंगे। जनता खुश होकर हमें वोट देगी और हम चुनाव जीत जायेंगे।"
"इसमें मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?" ब्रह्मा जी बोले।
भगवान ने कहा -"आप अजर अमर हैं.. हैं ना।"
ब्रह्माजी ने कहा -"हाँ हूँ..।"
"तो शीघ्र बतायें कि कब यहाँ से गरीबी दूर होगी।"
पता नहीं वत्स, तब तक तो मैं भी मर जाऊँगा।" कहकर ब्रह्मा जी अंतरधान हो गए। भगवान मायूस होकर अपना मुँह लटका कर बैठ गए।
नारद जी ढाँढंस बँधाते हुए कहने लगे -"प्रभो! मायूस न होइये। ये मृत्युलोक है। यहाँ हर बात का तोड़ मिलता है। कोई न कोई हल मिल जायेगा। आप बस गरीबी पर अपना फ़ोक्स रखें.. बस।" कहते हुए नारद जी उठे - "मैं अभी मार्केट से दो चार टेप लेकर आता हूँ, अमिताभ की, दलीप कुमार की, राजकुमार की.. उनको देख देख कर आपने उनकी आवाज़, अदा, स्टाइल की नकल करनी है। अपने आने वाले भाषणों के लिए कि कब आवाज़ उठानी है, कब गिरानी है किस अदा से और कब हाथ व उँगली उठानी है। ये सारी अदाएँ सीखनी होंगी। आपको मतदाताओं को लुभाने के लिए"
"तो अब ये नौटंकी भी करनी पड़ेगी हमें।" - भगवान जी ने नारद को घूरते हुए कहा।
"करोगे नहीं तो तमाशा कैसे लगेगा? जनता कैसे जुटेगी? वोट कैसे मिलेंगे। और हाँ फ़ोकस याने गरीबी पर ध्यान रहे बस्स..!" नारद ने फिर से ध्यान दिलाया।
"गरीबी के पीछे क्यों लठ्ठ लेके पड़े हो। यहाँ का मतदाता इसके बारे में सब जानता है। पहले राजाओं न खाल खेंची फिर 150 से अधिक सालों तक अंग्रेज़ों ने चूसा। जब से आजादी मिली पिछले 56 सालों से अपने ही लूट खसोट मचा रहे हैं, ये बात वे सब जानते हैं।"
नारद बोले -"जानते हैं..जानते हैं। वे भी जानते हैं। हम भी जानते है और दुनिया वाले भी जानते हैं। आपको उनके सेन्टीमेन्ट से खेलना है। उनको रोटी कपड़ा और मकान के सब्ज़बाग दिखाने हैं। अपने भाषणों में आपने उन्हें खुशहाली के सपने बेचने हैं। पर भर के लिए उन्हें ये अहसास दिलाना है कि वे भी अमीर बन सकते हैं। सिर्फ़ वोट देकर। उनसे बार बार कहना होगा कि हम तो इतना कर रहे हैं, दे रहे हैं। आपने तो केवल वोट देना है.. सिर्फ़ एक वोट।"
"चलिए मुद्दा तो हो गया। चुनाव चिन्ह के बारे में सोचा है कुछ आपने?" - भगवान जी बोले।
नारद जी ने तपाक से उत्तर दिया -"डालर" कैसा रहेगा? सारी की सारी दुनिया पागल हुई पड़ी है इसके पीछे। डालर को देखकर तो आम आदमी व गरीब तो छलाँगें लगायेंगे, छलाँगें.. भगवन!! पागल होके दौड़ेंगे हमारे पीछे।"
भगवान जी ने कहा -"दादा देनी पड़ेगी आपकी खोपड़ी की। क्या चुनाव चिन्ह ढूँढा है आपने। मुद्दा हो गया। चुनाव चिन्ह हो गया। अब पार्टी का क्या नाम रखा जाए?"
"पार्टी...। पार्टी के नाम के बारे में थोड़ा सोचना पड़ेगा भगवन। सारा दारोमदार इसी पर निर्भर करता है। मेरे ख्याल से पार्टी का नाम आम आदमी से जुड़ा होना बहुत ज़रूरी है। जिसे सुनकर वो ये महसूस करे कि यह उसी की पार्टी है।"
"तो बतायें ना जल्दी जल्दी!" भगवान व्याकुल हो गए थे नाम सुनने को।
" ’गरीब दल’ कैसा रहेगा भगवन?" नारद जी बोले।
"अहऽम...इससे तो लगता है कि हमारे छोले बिक जायेंगे।" भगवान जी ने नारद को देखते हुए कहा- "क्यों न बजरंग दल रखें?"
"नहीं.. नहीं भगवन वो क्या है कि बजरंगदल से पालिटिक्स की बू आ रही है। अलगाव वाद का आभास हो रहा है। इसमें तो किसी एक ख़ास समुदाय की बात आ रही है जबकि हमें तो आम आदमी से जुड़ा रहना बहुत ही ज़रूरी है। आप ये क्यों भूल जाते हैं प्रभो? गरीब शब्द गरीबों का प्रतिनिधित्व करता है। भारत के आम आदमी की छबि उभरती है उसमें। ये आदमी मर जायेगा लेकिन अपने से.. गरीब व गरीबी को कभी भी अलग नहीं होने देगा। बड़ा स्वाभिमानी है यह प्राणी भगवन। यही इसकी कमजोरी भी है। मन मे एक बात बिठा लें- आपने तो बस इसकी इस कामज़ोरी को भुनाना है। इसको लपेट लपेट कर चुनाव जीतना है।" कहकर नारद चुप हो गए।
"समझ गए, समझ गए भली भान्ति समझ गए।" भगवान जी बोले -"अब समस्या खड़ी होती है कि कहाँ से चुनाव लड़ा जाए। बिहार से तो शालू भई हमें जीतने नहीं देंगे। महाराष्ट्र तो पहले ही कह चुका है ये तो आपणी चै। पंजाब में अकाली हमें घुसने नहीं देंगे। हरियाणा से मन करता है लेकिन वहाँ भी खतरा ही है।" नारद जी को देखकर विष्णु जी बोले -"आप चुप क्यों हैं मुनिवर, कुछ तो सोचिये..।"
"घुमा रहा हूँ खोपड़ी को, देख रहा हूँ कि कहाँ से लड़ा जाए।" नारद जी ने सर पे हाथ फेरते हुए कहा - "मेरे ख़्‍याल से देवभूमि कैसी रहेगी?"
"आपका तात्पर्य पहाड़ यानि भारतखण्ड से तो नहीं है नारद जी?" भगवान जी ने जिज्ञासा बस पूछा।
नारद जी ने कहा -"हाँ प्रभो! अभी अभी तो बना है वो नया राज्य।"
"आपके मुँह में घी-शक्कर! क्या बात है आपकी! नारद जी एक काम कर दें प्लीज़, लक्ष्मी जी को फ़ैक्स कर दें कि चुनाव की सारी तैय्यारियाँ लगभग पूरी हो चुकी हैं..सिवाय नामीनेशन के। वो भी शीघ्र ही पूरी कर लेंगे।"
नामीनेशन का समय नज़दीक आता गया। नारद एवं भगवान जी की चिंतायें भी बढ़ने लगीं। नारद जी ने एक आइडिया दिया कि भगवन क्यों न मतदाताओं के करीब जाकर उनकी नब्ज टटोली जाए। उन्हें सुने कि वो क्या चाहते हैं।
"आइडिया बुरा नहीं है।" कह कर चल दिए दोनों कांस्टिचुएंसी की ओर। जाकर देखा कुछ लोग पंचायत चौंक में बैठे आपस में बतिया रहे थे। एक कह रहा था- "क्या बात है भाइयो जो अब तक ना तो कोई नेता ना कोई पार्टियों के कार्यकत्र्ता और ना ही चुनाव लड़ रही पार्टियाँ ही हमारे पास आई हैं। पिछले चुनाव में तो अब तक पोस्टर बाजी, गाड़ियों की भीड़, नेताओं के लम्बे लम्बे भाषणों से कान फट गए थे। साथ में हम लोगों की भी खूब चाँदी कुटी थी। हरएक को दस-पन्द्रह हज़ार रुपयों के साथ-साथ रोज़ दारू की बोतल और मुगŒ मिलती थी। याद है न सबको।"
सब एक साथ बोले.."हाँ, हाँ अच्छी तरह याद है।"
तो दूसरा बोला -"ठीक है, जितनी देर से आयेंगे हम भी अपने भाव उतने ही ऊँचे बढ़ायेंगे।" बीच में कोई बोला -"लेकिन हम अभी तक ये तय नहीं कर पाये हैं कि वोट किसे देना है?"
तभी कोई नेतानुमा आदमी खड़ा होकर बोला -"सब्र कीजिए भाइयो! हमें एकजुट होकर रहना है। अपनी अन्दरूनी बात का भेद किसी भी पार्टी वालों को न तो देना है और न ही देंगे कि हम किस के साथ हैं। बस यही होगा हमारा हथियार सब पार्टियों के साथ नैगोशियेशन करने के लिए। अगर आप लोगों को एतराज़ न हो तो मुझे अच्छी तरह आता है कि किस मुर्गी को कब और कैसे हलाल करना है। याद है ना.. पिछले चुनाव में मैंने ही आप सब लोगों को दस-पन्द्रह हज़ार रुपये दिलवाये थे.. याद है कि नहीं?" सबने सर हिला कर अपनी अपनी स्वीकृति दी, "याद है, याद है।"-- "तो बस्सऽदेऽऽऽऽऽऽऽ....आने वाली मुर्गियों का इन्तज़ार करो।"
कोने में बैठे एक व्यक्ति ने उठकर कहा -"देखिए, गाँव वालो! वोट एक शक्ति है। एक ऐसी चीज है जो आपकी व हमारी किस्मत बदल सकती है। हमें अपना वोट उस व्यक्ति या पार्टी को देना चाहिए जो हमारे बारे में सोचे, हमारे लिए काम करे। हमें चापलूसियों व सब्ज़बाग दिखाने वालों से बचना ज़रूरी है। आदमी के लिए पैसा ही सब कुछ नहीं है। असूल व सिद्धान्त और ज़मीर भी कुछ होते हैं।"
भीड़ में से कोई चिल्लाया -"अब्बे बैठ जा...बैठ जा! बड़ा आया सिद्धान्तों वाला। सिद्धान्तों की बात करन्ी है तो नेताओं के पास जा। जो हज़ारों करोड़ों डकारते हैं। अरऽऽरे! पैसे तो पैसे क्या वे तो हमारे जानवरों के चारे तक खा जाते हैं। बड़ा आया सिद्धान्तों वाऽऽऽला। जब वे इतना खा रहे हैं..अगर बहती गंगा में हमने डुबकी लगा ली तो तुझे काहे की मिर्ची लगी है।" फिर वह जनता से मुख़ातिब होकर बोला -"क्यों भाइयो?.. " सबने कहा, बिल्कुल सही कह रहा चमनलाल। कहते कहते खी खी कर सब हँसने लगे। चालू रहते चमनलाल बोला -"नेता जब एक पार्टी में से दूसरी पार्टी में जाने के लिए करोड़ों लेता है तो क्य हम पचास साठ हज़ार नहीं ले सकते।" तालियों से चौंक गूँज उठा।
तभी बच्चू बोला -"नेता जी वोट किसे देना है ये तो बताओ?"
नेता बोले -"बच्चू भाई, बतायेंगे बतायेंगे। पहले मुर्गियों को तो आने दो। फिलहाल राज़ को राज़ ही रहने दो। तुम क्या समझते हो, क्या पार्टी वालों ने अपने अपने जासूस नहीं छोड़ रखे होंगे हमारी बातों को जानने व सुनने के लिए। अरररे बड़े काँइयाँ होते हैं ये!"
बच्चू बोला -"फिर तो ठीक है। हाँ एक बात हमारी भी सुन लो वोट-सोट की बात तो अब हम से करियो ना। ये बता देना कि ठप्पा किस पर मारना है बस्स्ऽऽऽऽ...।"
नारद और भगवान जी अपनी अपनी खोपड़ियाँ खुजलाने लगे। उनके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा कि मतदाता वोट किसे देगा और चाहता क्या है?.. केवल पैसों के सिवा! दोनों बैरंग लौट पड़े अपन शिवर की ओर।
दूसरे दिन लोगों से पूछते पूछते चुनाव कार्यालय की ओर गए। वहाँ पहुँच कर देखा अंदर बाहर गलियारों में सफेद कुर्ते पैजामें पहने व कंधों पर कीमती शालों को लटकाए हज़ारों लोग इधर से उधर, उधर से इधर भागम-भागी दौड़म-दौड़ कर रहे हैं। उन्हें देखकर कौन कह सकता है कि भारत गरीब है। भारत में गरीबी है। सुबह के गए शाम को उनका नंबर आया।
अपने ’नामीनेशन’ के पेपरों को बाबू मान्यवर जी के आगे रख कर वे बाबू के उत्तर की प्रतीक्षा करते रहे। मान्यवर ने उनको देखे बिना हाथ आगे बढ़ा कर कहा -"राशन कार्ड...।" इतना कहना था कि भगवान व नारद एक दूसरे का चेहरा देखने लगे कि ये क्या कह रहा है।
नारद बोले -"मान्यवर जी! वो क्या होता है?"
खोपड़ी को उठाकर उसने उन्हें घूरते हुए कहा -"इस देश में रहते हो या बाहर से आये हो? राशन कार्ड नहीं समझते...! अररे इसके बिना ते इस देश में गति है ही नहीं। जीयो तो राशन कार्ड, मरो तो राशन कार्ड, स्कूल-कालेज नौकरी शादी-विवाह के अवसरों में सबसे पहले इसको पूछते हैं। ...नहीं समझे...?"
दोनों ने सिर हिलाया।
"देखो... जैसे बाहर के मुल्कों में ग्रीन कार्ड, सिटिज़न कार्ड या लैंडड कार्ड होते हैं, वैसे ही भारत में राशन कार्ड होता है..राशन कार्ड। राशनों की लाइनों में लगे हो कभी कि नहीं? अररे कुछ खाते-वाते हो कि नहीं?"
"जी ये खाते नहीं।" नारद जी ने कहा।
अचरज से मान्यवर ने उनकी ओर देखा और कहा -"क्या कहा? ..ये खाते नहीं। यहाँ जो खाता नहीं वो तो नेता बन ही नहीं सकता, मैं गारंटी से कहता हूँ। आप चुनाव लड़ने आये हो ना?"
"हाँ।" दोनों ने मुन्डी हिलाई।
"नाम क्या है?"
"जी भगवान"
"भगवान - क्या भगवान, श्रीवास्तव भगवान टोपीवाला भगवान दारूवाला भगवान... " बीच में नारद जी बोल पड़े -"विष्णु।"
पलभर घूरते हुए बोला मान्यवर -"भगवान विष्णु..! फिर कहोगे वैकुंठ से आये हो।"
"जी हाँ।" - नारद बोले।
"देखो मेरा भेजा मत खाओ। वैसे भी लोगों से बात करते करते खोपड़ी खाली हो गई है। पार्टी का नाम?"
"जी....."
"पार्टी भाई पार्टी। अररे बैनर बैनर ... जिसके नीचे तुम चुनाव लड़ोगे।"
"मानव...।" - भगवान बोले।
"मानव क्या? .. मानव वादी?"
"हाँ...हाँ मानव वादी! बिल्कुल सही कहा आपने मान्यवर जी।" -नारद बोले।
"याने मानववादी पार्टी राइट? हमने समजवादी, साम्यवादी, राष्ट्रवादी पार्टियाँ तो सुनी.. लेकिन ये मानव वादी क्या बला है श्रीमान? खैर..छोड़िये ये बतायें कि कहाँ से लड़ोगे?..मेरा मतलब चुनाव से है। है कोइ कांस्टीचुएन्सी दिमाग में?"
"देवभूमि..।" नारद ने झट से जवाब दिया।
"देवभूमि यानि भारतखण्ड?"
"जी हाँ..जी हाँ, वहीं से।"
"मान गए उस्ताद। क्या जगह छाँटी है। अभी अभी तो बना है वो राज्य। खोपड़ी की दाद देनी पड़ेगी आपकी। आप अवश्य जीत जाओगे भय्याऽऽऽ..। अब जरा चुनाव चिन्ह के बारे में भी बता दो, बड़ी कृपया होगी आपकी।" -मान्यवर ने कहा।
"डालर!"
"जी...?"-मान्यवर चौंके किये कहीं विदेशी एजेंट तो नहीं? फिर पूछा चुनाव चिन्ह के बारे में।
"डालर...!"- नारद ने जरा जोर देकर कहा।
"एक बात बताओगे श्रीमान जी। आपको रुपये में क्या कमी दिखी जो आपने डालर को चुना।"
वो क्या है कि इन्टरनेशनल मार्केट में इसकी वैल्यु ना के बराबर है.. इसीलिए ..हमने डालर को चुना। जरा नज़र दौड़ायें तो आज दुनिया इसी के पीछो दौड़ी जा रही है। अगर जीत गए ता यहाँ भी डालर ही डालर होंगे।" -भगवान जी की ओर मुड़कर नारद ने कहा -"क्यों प्रभो...?"
"वेट ए सेकंड।" -मान्यवर ने नारद से कहा -"अभी अभी थोड़ी देर पहले आपने इनका नाम भगवान विष्णु बताया था कि नहीं?"
"सत्य, बिल्कुल सत्य। इनका नाम भगवान भी है। विष्णु भी है। और लोग इन्हें प्रभो के नाम से भी जानते हैं।"
"वाह क्या खूब! अररे भई ऐसा तो नहीं कि थोड़ी देर में आप इन्हें दीनबन्धु, मुरारी के नाम से पुकारने लगो।"
"अवश्य मान्यवर जी, जगत इन्हें इस नाम से भी पुकारता है।"
"कभी भगवान, कभी विष्णु, कभी दीनानाथ, कभी मुरारी...ये तो पैदायशी नेता लग रहा है। वाह बेटे...! तुम अवश्य चुनाव जीतोगे, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ।" - मान्यवर ने ज्यादा उलझन श्रेयस्कर न समझते हुए कहा -"इस फार्म पे दस्तखत कर दो।" फार्म को आगे बढ़ाते हुए मान्यवर ने कहा -"अब किस नाम से पुकारूँ आपको श्रीमान?"
"त्रिपुरारी कहिए त्रिपुरारी..।" -नारद ने कागजों को पकड़ते हुए कहा।
"अच्छा, अच्छा बहुत हो गया। जमानत के पैसे भरो और दफ़ा हो जाओ। वो क्या कहाते...।"
नारद ने उत्तर दिया -"नटवर कहिए नटवर। श्रीमान मान्यवर जी।"
"हे भगवान.. मैं तो पागल हो जाऊँगा इसके साथ।" कहकर वह उठ कर दूसरे कमरे कि ओर चल दिया।
नामीनेशन के पेपरों को भगवान जी को थमाते नारद जी बोले -"प्रभो.. पहला चरण पूरा हुआ। अब चुनाव के युद्ध का शंखनाद कर उतरा जाए चुनाव की रणभूमि में।"
चुनाव कार्यालय के बीचोंबीच में खड़े होकर नारद को गले लगाते हुए प्रभु बोले -"सखे! इसके अलावा अब कोई चारा भी तो नहीं रह गया। लड़ना लड़ाना तो जैसे मेरी जन्म कुंडली में विधाता ने शुरू से लिख दिया हो।"

कार्यालय से बाहर निकलते हुए नारद भगवान को समझाने लगे -"हे सृष्टि के पालनहार! ..इस चुनाव में साम दण्ड भेद सबका इस्तेमाल होगा। चरित्रों का हनन भी होगा। हमारी बात ध्यान से सुनें..इस चुनाव में तीनों चीज़ों पर विशेषरूप से ध्यान देकर फूँक-फूँक कर कदम रख कर देख देख कर चलें..प्रैस व प्रैसवाले इन्टरनेट और वीडियो..वो भी कैमकोडर को। जबसे इसकी इज़ाद हुई न जाने इसने कितने ही जाने माने दिग्गज नेताओं की ऐसी की तैसी कर दी। तहलका ने तहलका मचा के रख दिया है प्रभो! इस मृत्युलोक में ज़र,जोरू और ज़मीन से भी बचकर चलें। ये तीनों ही चुनाव में सकैण्डलों के मुद्दे बनते हैं और विपक्षी इन्हीं को शिखण्डी के रूप में ढाल बना कर अपने सामने चुनाव लड़ने वाले पर इसका निशाना साधते हैं।"
"आपके कहने का भावार्थ हम समझ गए नारद। हमारा लक्ष्य बैलट-बाक्स, वोट व मतदाता होगा बस्स!" - भगवान ने नारद को यकीन दिलाते हुए उनके कन्धों पर हाथ रख कर घर चलने का आग्रह किया। दोनों घर की और चल दिये।
आगे --

Monday, January 5, 2009

अन्तर

पत्नी, पति से बोली - हे.. जी,
थोड़ा हमें, अभिव्यक्ति और अनुभूति के बारे में
बताएँ --
है दोनों में क्या अन्तर
तनिक समझाएँ।

पति बोला -
-अनुभूति वो है जैसे
प्रेमिका की बात, पत्नी से न कही जाए
जिसका अन्दर ही अन्दर कर अनुभव
रस लिया जाए
चेहरे पे भाव प्रकट हों पर
जो शब्दों से न कहा जाए
वो, अनुभूति है डियर ...

और अभिव्यक्ति ?

जो तुम, मेरे चेहरे पे देख रही हो
बिन कुछ कहे सब पढ़ रही हो
कर कुछ नहीं सकती बस
अन्दर ही अन्दर कुढ़ रही हो
उसे अभिव्यक्ति कहते हैं डियर!
एक प्रयास

गीत हो या गज़ल छ्न्द हो या रुबाई
ये तो कहने के बहाने हैं जिसमें तुम हो समाई !
देखा नहीं तुमने चाँद को कभी शरमाते हुए
आते ही आइना क्यूँ तुम शरमाई ........ !



वो मदस्त


Sunday, January 4, 2009

३ झक मारता हूँ

किसीने मुझसे पूछा
क्या करते हो?

मैं बोला - झक मारता हूँ
वे बोले - भय्या-
ये तो सबसे बड़ा काम है
आज की दुनिया में
जो ये करता है उसीका नाम है।
संसद विधानसभाओं में
मंत्री संतरी क्या करते हैं?
अररे! झक मार मार कर
लोगों को झाँसा दे, देकर
संसद पहुँच कर मौज करते हैं।
आप पैदल
वो कारों में
तुम झोपड़ियों में
वे महलों में
ये सब इसी का कमाल है
इसी का धम्माल है।

जब वे महलों से नीचे देखते हैं
तो उनकी नज़रों में
मैं और आप-
कीड़े जैसे रेंगते हैं।
भय्या--
इसीलिए कहता हूँ
इस झक को कस के पकड़ लो
मैं तो कहता हूँ लटक लो
जैसे-
उमा भारती अटल को जकड़े थी
मायावती काशीराम को पकड़े थी
बना बनाकर सबको उल्लू मौज करो
चुगल चुगलीखोल बन
लड़ने लड़ाने के भेद सोचो
चुनाव में चुनाव लड़कर संसद पहुँचो
फिर जितनी झक मारनी है मारो!!
खुश रहो ऐश करो !