है ना ----
कितनी अजीब सी बात
कि, मैं .. ..
आदमी न होकर सुअर हो गया हूँ।
जहाँ कहीं, जब कभी
जिस किसी के अन्दर झाँक कर
मुँह डालकर,
उसके अंदर में समाये विश्वास
और अविश्वास के कीचड़ को
बाहर निकालकर, दुनिया पर फेंकता हूँ
वो, देख रहे हैं
और मैं, देखा रहा हूँ .. -- है ना...
मेरी फितरत बन गई है
जिस किसी पर घुर्राना
बात बात पर लांछन लगाना
दूसरों को नंगा करना और
नंगा देखना --
लेकिन, ये काम तो
सुअरों का होता है आदमी का नहीं
वही तो, मैं कर रह हूँ,
इस चक्कर में मैं, स्वयं कई बार
जनता के कटघरे में खड़ा हो गया हूँ ..---- है ना..
सुअर का काम है
अपने आस पास, और पास पड़ोस को
गन्दा करना और करवाना
वही तो कर रहा हूँ
अपने घर का गन्द अब
दूसरों के घरों में डाल रहा हूँ
पहले चुपके चुपके करता था
अब सरेआम करता हूँ
जिसको जो करना है कर ले
जिसको जो उखाड़ना है, उखाड़ले
पहले मैं पालतू था
अब तो जंगली हो गया हूँ ..---- है ना
Tuesday, January 13, 2009
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सही लिखा है. ऐसे सूअरों की संख्या बढ़ती जा रही है.
ReplyDeleteआज कल के हालत पर पेनी चोट .....पर ये सूअर सुधरने वाले नही है.
ReplyDeleteअच्छी कविता .
सुअर गंदगी खाता है, खाकर साफ़ भी तो कर देता है सार्वजनिक गन्दगी.
ReplyDeleteेआज का सच है ये बहुत खूब लिख है
ReplyDeleteसंदर्भ बहुत उम्दा है. बहुत बढ़िया.
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