Sunday, February 22, 2009

अधूरे सपने

अधूरे सपने पाराशर गौड़

गोपी भारत में इन्जीनियर था और मधु एक ट्रेण्ड टीचर। उनका अपना एक छोटा सा परिवार था। जिसमें एक माँ थी एक भाई और भाभी। गोपी की अभी अभी नई नई शादी हुई थी। वहाँ वे अच्छा खा पी रहे थे। दोस्तों के कहने पर गोपी ने कैनेडा आने के लिए आवेदन पत्र भेजा। कुछ दिनों के बाद उसे एम्बेसी का पत्र मिला जिसमें उसके पत्र पर गौर करते हुए कैनेडा सरकार ने उन दोनों को वहाँ जाने व रहने की अनुमति दे दी थी।
परिवार में गोपी व मधु के विदेश जाने की खबर से खुशी का माहौल बना हुआ था। तैयारियाँ बड़ी जोरों-शोरों पर हो रही थीं। बधाईयाँ देने वालो का तांता लगा हुआ था कि अचानक माँ की तबियत खराब हो गई। उसे हस्पताल में भर्ती कराया गया। हालत दिनों-दिन बिगड़ती जा रही थी। उनके कैनेडा आने से दो सप्ताह पूर्व गोपी की माँ चल बसी थी। रह गया था बड़ा भाई और भाभी। यहाँ आने के ठीक एक साल बाद भाई का पहला लड़का हुआ जिसका नाम उन्होनें आनंद रखा। प्यार से वे उसे बिटु कह कर पुकारते थे। दो साल बाद एक और बच्चा हुआ टिंकू।
जब से गोपी और मधु कैनेडा आये। यहाँ आने के बाद अपने पाँव जमाने के लिए उन्हें क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़े। अच्छी डिग्रियों के होते हुये भी उन्होंने काम के नाम पर फैक्ट्रियों व एजन्सियों के धक्के खाये। एक सस्ता सा बेसमेंट किराये में लेकर नंगे अखबारों में सोये। ट्रेनों बसों के धक्के खाये। सर्दियों में बर्फ में मीलों मील पैदल चले। जब-जब बर्फ की ठंडी हवा हाथ पाँवों की उँगलियों को सुन्न कर देती थी तब-तब वे अपने हिन्दोस्तान व वहाँ की गर्मियों को याद करते थकते नहीं थे। क्या-क्या नहीं किया और क्या क्या देखा। आपा-धापी की जिन्दगी से जूझते हुए गोपी और मधु ने कैनेडा में अपना जम-जमाव कर लिया था।
पिछले 20 सालों में रात दिन एक करके गोपी ने अपनी टेक्सी डाल ली थी। मधु बैंक में कलर्क लग गई थी। दोनों ने मिलकर एक घर भी बना लिया था। इस दौरान उनके आँगन में एक सुदंर सी नन्ही बच्ची रोज़ी भी आ गई थी। ईश्वर की कृपा से अब उनके पास सब कुछ था जो उन्हें चाहिये था घर परिवार नौकरी और अपना काम। गोपी अपने परिवार के साथ बड़े अमन चैन के साथ रह रहा था।
सूरज ढलने लगा था। शाम के पाँच बजने वाले थे। रोज़ी स्कूल से और मधु काम से घर आ चुकी थी।
रोज़ी अपना होम वर्क करने के बाद मम्मी के कमरे से पुराने फोटो के एलबम उठा कर अपने कमरे में लाकर देखने लगी। देखते-देखते एक फोटो पर उसकी निगाहें टिक गईं। उसके बारे में जानने की उसकी जिज्ञासा जाग उठी कि ये है कौन?
एलबम को हाथों उठाये रोज़ी ने अपने कमरे से सीधे नीचे मम्मी के पास आकर पूछा- "मम्मी मम्मी देखो ये कौन है?"
फोटो को देखकर मधु बोली- "ये तेरे पापा है और कौन है।"
"हैं...!" आश्चर्य चकित होकर उसने कहा - "इतने हैंडसम थे पापा...!"
"हाँ...।"
"मम्मी मैं ये फोटो बड़ी कराने अपनी सहेली कैथलीन के यहाँ जा रही हूँ उसके पास स्कैनर है। इसे बड़ी बना कर मैं अपने कमरे में टाँगूँगी। मैं अभी आई।" कहते एलबम को वहीं छोड़ सीधे बाहर की ओर लपकी।

मधु ने ज्यों ही टेबल पर रखी एलबम को उठाया और देखने को हुई कि बाहर ड्राइव-वे में किसी गाड़ी की घर-घराहट सुनाई दी। लपक कर देखा तो गोपी था। बाहर आकर गोपी से बोली- "आप... आप आज इतनी जल्दी ही घर आ गये। सब तो खैरियत तो है।"
"हाँ... सब ठीक है। कस्टमर जल्दी-जल्दी मिल गये थे। कमाई भी और दिनों की अपेक्षा आज ज्यादा हो गई तो सोचा हर रोज देर से जाता हूँ आज ज़रा जल्दी जाकर रोज़ी से बैठकर बात करूँ। बहुत दिनों से उससे मिलना ही नहीं हो पा रहा है। रोज़ी स्कूल से आ गई या नहीं ......।" हाथों में लटकते थैलों को किचन के पास रखते हुए उसने कहा।
"जी......, आ गई है। अभी वो अपनी सहेली कैथलीन के यहाँ गई है जल्दी आने को कह गई है।" कहते उसने चाय का प्याला गोपी के आगे रखते हुए कहा।
"कल उसका जन्म दिन है। रोज़ी कल 18 साल को पूरा कर 19 की हो जायेगी। उसने कल अपनी कुछ सहेलियों को इस मौके पर घर पर बुलाया है। आप ज़रा जल्दी आ जाना। मैं भी काम से लंच के बाद आ जाऊँगी।" इतना कह कर किचन में चली गई।
"18 साल...।"
18 साल कब गुजरे। कब रोज़ी इतनी बड़ी हो गई, गोपी को पता ही नहीं लगा। गोपी दीवार पर लगी रोज़ी की तस्वीर की ओर एकटक लगा कर उसे देखते रह गया।
"क्या देख रहे हो।" मधु ने उसकी तन्द्रा को भंग करते हुए कहा।
"देख रहा हूँ हमारी कल की नन्हीं सी गुड़िया आज देखते देखते कितनी बड़ी हो गई है।"
"समय बैठा थोड़ी रहता है किसीके लिए..." मधु ने कहा। इतने में रोज़ी आ धमकी। सीधे पापा से मुखातिब होकर कहने लगी - "पापा ये देखें ..." फोटो दिखाते हुए रोज़ी ने कहा- "पापा ... आप इतने हैण्डसम थे...।"
"ये... अररे हैं भाई।" अपनी मम्मी से पूछो, "क्यों मधु......?"
"मम्मी से क्या आप हम से पूछिए... आप अभी भी हैन्डसम हैं।" रोज़ी ने कहा, "और हाँ डैडी कल हमारा जन्म दिन है जरा जल्दी आ जायेंगे तो हम पर बड़ी कृपा होगी।"
पलट कर मम्मी की ओर देखने लगी मानो कह रही हो... "क्यों मम्मी हम ठीक कह रहे है ना? क्योंकि पापा को तो हमारे होने न होने का कोई अहसास है ही नहीं। जब हम रात को सो जाते हैं तो आते हैं। और जब उठते हैं तो जा चुके होते है।"
"अररै! कैसे बात कर रही हो... कहो तो कल हम पूरे दिन घर पर ही रह जाएँ।" प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए गोपी ने कहा।
"नाट ए बैड आडिया...क्यों मम्मी ..?" कह कर रोज़ी सीधे ऊपर अपने कमरे में चली गई। वे दोनों किचन में कल की पार्टी के बारे में प्लान बनाने में जुट गये।
काम से लौटते समय मधु केक की दुकान पर रुक कर अपना ’ऑर्डर पिक’ करते हुए घर की ओर चल दी। रास्ते में ’रेडियो शैक’ पर नजर पड़ी तो एकाएक याद आया, स्कूल जाते समय रोज़ी ने कहा था, "मम्मी अबके बर्थ डे प्रेजेन्ट में मैं सी. डी. प्लेयर लूँगी ... हाँ।"
दुकान में घुसते ही वो शो केस में रखी चीजों को निहारते हुए सी.डी. की तलाश करने में लग गई। तलाश करते करते उसे सी.डी. प्लेयर मिल ही गया।

अंधेरा छाने लगा था। कमरे में रोशनी जगमगा रही थी। बैठक वाले कमरे में लाल पीले नीले कागज़ की लम्बी कतरन बाली पट्टिओं से कमरा सजा हुआ था, जिसमें गुबारे चिपाकाये हुए थे। वे पंखे की हवा में उड़ उड़ कर नीचे आने को आतुर हो रहे थे। कमरे के बीचों-बीच में एक टेबल थी। उसमें सफेद चादर बिछी हुई थी। जिसमें रखा हुआ था एक केक। उस केक पर बड़े आर्टिस्टिक अक्षरों में लिखा था, "हैप्पी बर्थ डे टू रोज़ी।"
रोज़ी की सहेलियाँ और गोपी एवं मधु केक के चारों ओर खड़े थे। रोज़ी हाथों में केक काटने का चाकू लिये बार बार बाहर की ओर देखे जा रही थी। तभी मधु ने रोज़ी से कहा –
केक काटो बेटा...।"
"हाँ ..., अभी काटती हूँ मम्मी...।" कह कर फिर बाहर की ओर देखने लगी।
"क्या बात है बेटे ?" मधु ने फिर रोज़ी से पूछा .. "किसी का इन्तजार है क्या?"
"हाँ... ।"
"चल तू पहले केक काट ले। वो जो भी है देर सबेर पहुँच ही जायेगा।" मधु ने उसे चाकू को पकड़ाते हुए केक काटने के लिए फिर कहा। इधर उधर देखने के बाद रोज़ी ने केक काट दिया। गोपी ने एक टुकड़ा उठाकर उसके मुँह में डालते कहा - "जन्म दिन मुबारक हो बेटे!"
"थैंक्स डैड....।"
रोज़ी के माथे को चूमते मधु ने कहा- "जन्म दिन बहुत बहुत मुबारक हो बेटे।" उसके मुँह में केक का टुकड़ा डालते हुए और साथ में गोपी की ओर देखते हुए उसने कहा- "बच्चे कितने भी बड़े क्यों ना हो जायें लेकिन माँ-बाप के लिए वे हमेशा बच्चे ही रहते हैं।"
इतना कहना था कि रोज़ी बीच में बोल उठी - "पर मैं अब बच्ची नहीं हूँ मम्मी... अब मैं बड़ी हो गई हूँ। आज के बाद मैं अपने निर्णय स्वयं ले सकती हूँ...... क्यों डैड?"
इस प्रकार के उत्तर को सुनकर पहले तो गोपी सन्न रह गया। सोचता रहा कि अगर वो इस समय भारत में होता और रोज़ी ने ये बात वहाँ कही होती तो दो थप्पड़ उसके गाल पर मारकर उसको उसकी इस बदत्तमीज़ी का उत्तर देता लेकिन क्या करे इस देश में तो उसके हाथ कानून के दायरे से बँधे हुए हैं। केवल हाँ में हाँ मिलाने के सिवा कुछ नहीं कर सकता। उसने ने मधु की ओर देखते हुए कहा - "हाँ...हाँ... क्यों नहीं क्यों नहीं बेटे।"
पापा की इस स्वीकृति को पाकर उसे लगा कि वास्तव में 18 साल पूरे होने का क्या अर्थ होता है। उसे लगा कि आज उसका भी अपना कोई वजूद है। लगा रहा था कि जैसे उसके हाथ में राजसत्ता आ गई हो। अब वो जो चाहे कर सकती है। अब उसे मम्मी पापा से हर बात में इजाज़त लेने के लिए गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा और ना ही मिन्नते करनी पड़ेंगी। आज उसे लगने लगा कि वह अब अकेले ही पूरे समाज से लड़ सकती है। उसे बदल सकती है।
पापा के हाँ सुनने के बाद उसने कहा - "तो पापा सबसे पहले मैं आज आपसे अपने दोस्त को मिलाना चाहती हूँ। आप यहीं ठहरिये मैं उसे लेकर अभी आती हूँ।" - कहने के साथ ही वो बाहर गेट की ओर लपकी। ये सुनकर वे दोनों एक दूसरे का चेहरा देखने लगे।
रोज़ी ने इधर उधर झाँका। डैनियल को ढूँढने प्रयास किया लेकिन डैनियल का कहीं पता न था। थोड़ी देर में मुँह लटकाये अंदर आकर बड़े मायूसी और रुआँसे शब्दों के साथ उसने बुदबुदा कर कहना शुरू किया...
"वो चला गया...।"
"वो कौन...? किसकी बात कर रही है तू ......? कौन चला गया?" गोपी ने रोज़ी से पूछा।
"मेरे स्कूल का दोस्त।"
"दोस्त... कौन सा दोस्त ...?"
"डैनियल ... ।" कहने के साथ ही भाग कर ऊपर अपने कमरे में चली गई। उसकी सहेलियाँ गोपी और मधु मुँह लटकाये सब एक दूसरे को देखते रह गये।
"आंटी हम चलते हैं... हम लोग कल रोज़ी से स्कूल में उसे मिल लेंगे।" कह कर वे सब अपने अपने घरों की ओर को चल दीं।
सोफे के एक कोने में गोपी तो दूसरे कोने में मधु पिटे हुए मोहरों की तरह चुपाचप बैठे हुए थे। मौन को तोड़ते हुए गोपी ने पूछा - "ये सब कब से चल रहा है।"
"मुझे क्या पता?" मधु ने उत्तर दिया- "मैं भी तो आप के ही साथ 5 बजे घर से निकल जाती हूँ। सूरज ढलने के बाद वापस लौटती हूँ। बचा खुचा समय घर की साफ-सफाई, चौका-चूल्हा, खाना बनाने में बीत जाता है। मुझे खुद अपने अगल-बगल में झाँकने का समय तक नहीं मिलता। चक्की की तरह पिसती रहती हूँ।"
"तुम माँ हो... तुम्हे पता होना चाहिए कि इस घर में क्या हो रहा है।"
"समझती हूँ ...समझती हूँ। थोड़ा संयम से काम लेना होगा। सब ठीक हो जायेगा। आप चिन्ता ना करें। अब वो बच्ची नहीं रही जवान हो गई है। थोड़ा धीरे बोलें।"
"हाँ ... जवान हो गई है। सुना नहीं कैसा जबाब दिया था तुम्हें उसने...। मन तो कर रहा था थप्पड़ से चेहरा बिगाड़ दूँ...-" गुस्से में उबलते हुए गोपी ने कहा –
"रहा जवानी का भूत तो निकालने में एक मिनट नहीं लगेगा मुझे। वैसे ये सब तुम्हारा कसूर है। तुम्हारे लाड़-प्यार ने बिगाड़ है उसे।"
"अर...ररे...... गुस्सा छोड़िये भी... कहा ना सब ठीक हो जयेगा। बच्ची है अभी। समझा दूँगी उसे बस...। चलिए आराम कीजिए।" - कह कर वे सोने चले गये।
दोनों सोने की कोशिश कर ज़रूर रहे थे लेकिन आँखों से नींद गायब थी। कल रात के घटनाचक्र ने उन दोनों की नींद गायब कर दी थी। सारी रात वो करवटें बदलते रहे। रोज़ी और डैनियल के रिश्तों को लेकर वे जाने क्या-क्या सोचते रहे। इस सोच को सोचते-सोचते मधु का सर दर्द के मारे फटा जा रहा था। वो उठी। उसने घड़ी की ओर देखा। सुबह के ढाई बज रहे थे। तकिये के नीचे से अपनी सर की चुन्नी को निकाल कर वह माथे पर कसके बाँधने के साथ लाइट जलाते हुए सरदर्द की गोली ढूँढने लगी।
"क्या ढूँढ रही हो...?" गोपी ने करवट बदलते हुए मधु से पूछा।
"सर दर्द की गोली।"
"इधर है मेंरे पास ... ये लो।"
गोली को पानी के घूँट के साथ निगलने के बाद वो गोपी से बोली –
"आप सोये नहीं ...?"
"तुम सोई हो क्या?"
"नहीं।" कहते-कहते मधु फिर बिस्तर में लुढ़क गई।

रोज़ की तरह रोज़ी तैयार होकर स्कूल को चल दी। वो डैनियल पर नाराज़ थी। नाराज़... बहुत नाराज़। जिसने उसे ऐसे अवसर पर धोखा दिया जब वो पहली बार उसके साथ मिलकर कोई निर्णय लेना चाहती थी। रास्ते में चलते-चलते वो अपने से बातें करती जा रही थी - "चाहे कुछ भी हो जाय आज मैं उस से नहीं बोलूँगी। चाहे वो कितना भी गिड़गिड़ाये कितनी विनती करे, चाहे कितनी भी कसमें खा ले... मैं पिघलने वाली नहीं...क्या समझता है वो अपने आप को।"
इतने में स्कूल आ गया। अपनी कक्षा में दाखिल होते ही उसे डैनियल दिखाई दिया। पल भर के लिए दोनों की निगाहें टकराईं। जितनी तेज़ी से निगाहें मिली थीं, रोज़ी ने उतनी ही तेज़ी से अपनी निगाहें पीछे हटा लीं। डैनियल को समझते देर नहीं लगी कि रोज़ी के गुस्से का पारा ज्यादा ही गर्म है।
पीरियड खत्म होते ही दोनों अपने लॉकरों की ओर चल दिये। डैनियल ने रोज़ी के पास जाकर कहा- "हाय,... हैप्पी बर्थ डे।"
रोज़ी ने जैसे ही सुना उसकी तरफ से अपना चेहरा दूसरी ओर मोड़ लिया और ऐसी अभिनय करने लगी जैसे उसने सुना ही नहीं हो।
"नाराज़ हो। वैसे तुम्हारा नाराज़ होना बनता भी है। क्योंकि मैं वहाँ से चला जो गया था।" रोज़ी की बाँह पकड़कर उसे अपनी ओर करते हुए डैनियल ने कहा- "हे......लुक ऐट मी ...पूछोगी नहीं कि क्य़ूँ गया था वहाँ से मैं।"
"हाँ क्य़ूँ गये थे। बोलो...... क्य़ूँ गये थे।" झटके से गुस्से में हाथ को छुड़ाते हुए उसने कहा।
"समझाता हूँ... समझाता हूँ... पहले यहाँ से बाहर तो चलो।"
"नहीं......, मुझे नहीं जाना ...।" तुनक कर रोज़ी बोली।
"अर...र...रै चलो भी......।" उसने रोज़ी की बाँह पकड़ी और उसे घसीटते हुए सामने रैस्ट्रोरेन्ट की ओर ले गया। बिठाते हुए बोला- "देखो रोज़ी मैं नहीं चाहता था कि तुम्हारे जन्मदिन के मौके पर मुझे लेकर कोई लफड़ा हो। तुम्हें बे वज़ह बुरा भला सुनना पड़े वो भी मेरी वज़ह से... देखो..."
बीच में उसकी बात को काटते हुए रोज़ी बोल उठी- "देखो...देखो ...... क्या देखो! सब धरा का धरा रह गया। अपने 18वें जन्मदिन पर जब मैं सब के सामने कोई निर्णय लेना चाह रही थी तो तुम कायरों की तरह वहाँ से भाग गये।"
"आई एम सॉरी...... रियली सो सॉरी। रोज़ी... तुम मुझे कायर कह लो, डरपोक कह लो, जो भी जी में आये वो कह लो। लेकिन कहने से पहले थे गिफ़्‍ट तो देख लो, प्लीज़।" गिफ़्‍ट को उसकी ओर बढ़ाते हुए उसने कहा।
रोज़ी ने गिफ़्‍ट को खोलकर ज्यों देखा.. मारे खुशी के डैनियल से चिपकते हुए उसने कहा- "हाउ स्वीट...... थैंक्स।" गाल पर चुबंन लेते हुए उसने कहा- "आई लव यू......!"
"मी टू......!" कह कर दोनों पल भर के लिए एक दूजे के बहुपाश में बंध गये। थोड़ी देर वहाँ बैठकर अपने गिले शिकवे मिटाने के बाद दोनों घर की ओर चल दिये।
रोज़ी डैनियल से मिलने के बाद बहुत खुश थी। हाथों में उसके गिफ़्‍ट को लेकर खुशी में गुनगुनाते जैसे वो घर में घुसी... माँ ने उसे पूछा- "क्या बात है आज बहुत खुश नज़र आ रही है हमारी बिiटया रानी और ये हाथ में क्या है?"
"गिफ़्‍ट...!"
"किसने दिया?"
"डैनियल ने ...!"
"ये डैनियल का क्या चक्कर है बेटे?" - मधु ने जानना चाहा।
"मम्मी... वो मेरा बहुत अच्छा मित्र है ... ही लव्ज़ मी एण्ड आई लव हिम टू...!" कह कर सीढ़ियों की ओर लपकी।
"ये लव-सव का चक्कर छोड़। पहले पढ़ाई पर ध्यान दे।" मधु ने समझाते हुए रोज़ी से कहा- "देख बेटे, ये सब बातें अगर तेरे पापा सुनेंगे तो बहुत गुस्सा होंगे। उनको तेरी इन करतूतों का पता चल गया तो क्या कहेंगे?"
रोज़ी अभी सीढ़ियों के बीच में पहुँची थी कि उसने मुड़ कर मधु से कहा- "ज़्यादा से ज़्यादा डाँटेंगे और क्या... हाथ तो लगा नहीं सकते। ज़्यादा तंग करेंगे तो घर छोड़ कर चली जाऊँगी।" कह कर कमरे में घुस गई।
"ये कैसी बात कर रही है तू।" जब तक और कुछ कहती तब तक भड़ाक से दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ ने उसे वहीं रोक दिया। सर पकड़ कर बैठ गई थी मधु।
दूसरे दिन रोज़ी जैसे स्कूल पहुँची उसने डैनियल से कहा-
"डैनियल... आज मैंने मम्मी को अपने इरादों की भनक दे दी है।"
"इरादे... कौन से इरादे? मैं तुम्हारे कहने का अर्थ नहीं समझा।" -डैनियल पूछा।
"यही कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ और मैं अपने प्यार के लिए कुछ भी कर सकती हूँ। यहाँ तक कि अगर मुझे घर भी छोड़ना पड़े तो मैं छोड़ दूँगी।"
रोज़ी के कहे शब्द "इरादों की भनक" ने डैनियल को सोचने पर मजबूर कर दिया था। यूँ तो वो भी कच्ची उम्र में उठते प्रेम की रौ में रोज़ी के साथ बह तो ज़रूर रहा था। इस उम्र में प्रेम में पागल होना और उसमें अन्धे होने का नतीजा क्या होता है यह उससे बेहतर कोई नहीं समझ सकता था क्यों कि उसकी माँ ने भी ऐसी ही गलती की थी। वो भी किसीके प्यार में अन्धी होकर अपने माँ-बाप, भाई-बहिन सबको दर-किनारा कर उसके साथ भाग गई थी, जिसने कुछ दिन साथ रहने के बाद उसके गर्भ में अपनी निशानी देकर उसे बीच रास्ते में अकेला छोड़, उसके जीवन से जाने कहाँ गायब हो गया था। डैनियल को उसकी माँ ने न जाने कितनी मुसीबतें झेलते हुए पाला था। कच्ची उम्र में, प्रेम में अन्धे होकर निर्णय लेने का अर्थ डैनियल ने बचपन से ही न केवल देखा था बल्कि उसे जीया भी था। अब रोज़ी के मुँह से वैसी ही बातें सुनकर वह विस्मित रह गया था और अपने आप से प्रश्न कर रहा था कि क्या वह भी रोज़ी के साथ वही गलती करेगा जो उसके माँ बाप ने की थी। उसने अपने मन ही मन दृढ़ता से निर्णय लिया और उसने रोज़ी से कहा- "रोज़ी सुनो ...तुम मुझे प्यार करती हो...?"
"हाँ...।"
"तो कसम खाओ कि तुम आज के बाद कभी भी घर छोड़ने की बात अपने दिमाग में नहीं लाओगी। मैं तुम्हें नफ़रत से नहीं प्यार से उस घर से अपने घर लाने की सोचता हूँ। तुम घर से भाग कर शादी इसलिए करोगी कि तुम और मैं खुश रहें और हमारे किये गये कामों से दोनों परिवार दुश्मनी और नफ़रत की आग में जलते रहें। ऐसा करके मैं तो खुश नहीं रह सकता...तुम रह पाओगी ... बोलो.....?"
यह सुनकर रोज़ी का चेहरा लटक गया। वो सर नीचे कर पाँव के अंगूठे से ज़मीन खुर्चने लगी। उसने रोज़ी को उठाया अपने बहुपाश में कसते हुए कहा- "ऐसा कभी भी मत सोचना माई लव!"
तभी स्कूल की घन्टी बजी दोनों क्लास की ओर चल दिये।
जब भी गोपी मधु को रोज़ी के बारे में पूछता वो उसे यह आश्वासन देकर टाल देती कि मैं सब संभाल लूँगी। आप कुछ ना बोलें। इस दौरान रोज़ी ने ऐसी कोई हरकत नहीं की जिससे घर में कोई कोहराम मचता। उसके इस बदलाव पर भी उन दोनों को शक सा होने लगा था कि क्या बात है कि रोज़ी ठीक समय पर स्कूल जाती है और ठीक समय पर घर लौट आती है।
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अनहोनी पाराशर गौड़

मिसेज कान्ति बत्रा अपने पति व दो बेटियों कला व मोनिका के साथ न्यू कोर्ट के कमरा नंबर 326 में अपने 20 साल के बेटे मनजीत के पेश होने का इन्तजार कर रही थी। मनजीत पर "बिना रजिस्ट्रड फायर आर्म" रखने व एक मासूम की हत्या का आरोप लगा हुआ था।
कमरा खचाखच भरा हुआ था। कान्ति के साथ और भी कई लोग अपने अपने चाहने वालो के केस के लिए वहाँ पर आये हुए थे। सबके सब जज के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। बेंच पर बैठी कान्ति पथराई निगाहों से जज की खाली कुर्सी को एक टक होकर निहार रही थी। सोचने लगी कि ये क्या हो गया। उसकी वर्षों की मेहनत से बना बनाया घर पल में ही उसके आँखो के सामने टूटकर चूरचूर हो गया। मनजीत के कोर्ट सज्जा के बारे में सोचते सोचते वो घटित पूरी घटना एक फिल्म की तरह उसके मानस पटल पर रेंगने लगी।
आज से 30 साल पहले ठीक आज के ही दिन जब वो और रजनीश भारत से कैनडा आ रहे थे तब कितनी उमंग और जोश था दोनों में एक नई जगह आने के लिए। एक नई ज़िन्दगी की शुरूआत के लिए।
कैनडा आने पर जैसा सोचा था वैसा हुआ नहीं। शुरू शुरू में तो कई बार दोनों ने वापस जाने का भी मन बना लिया था। रात दिन कड़ी मेहनत करके कुछ दिनों के बाद उन्होनें अपने पैर जमा लिये। इस दौरान कान्ति माँ बन गयी। मनजीत उनके जीवन में नई रोशनी व ढेर सारी उम्मीदों को लेकर आया था। पूरा घर उसकी किलकारियों से गूँज उठा। मनजीत को गोदी में लेकर कान्ति रजनीश से बोली ...
"मै तो इसे वकील बनाऊँगी ..."
"...अच्छा..." हँसते हुए रजनीश ने कहा।
फिर शरारती भाव में उसने कान्ति से कहा... , " इसे तो आप वकील बनाओगी माना और जो बाद में आयेंगे उन्हें क्या बनायेगी?"
फटाक से बिना देर किये कान्ति ने उत्तर दिया ... " एक को डाक्टर दूसरे को इंजिनियर और तीसरे को ..." वो कुछ कहती उसकी बात को बीच में ही काटते हुए रजनीश बोल पडा...... "अरे बस भी करो भाई.........फुटबाल की टीम बनानी है क्या?" ये सुन कर दोनों खिल खिलाकर हँस दिये।
कुछ समय के बाद कान्ति ने अपने माँ बाप भाई बहिनों को बुला लिया जो उसके कामों में हाथ बँटाते रहे। समय गुजरता चला गया। बदलते समय की धारा के साथ साथ उनका जीवन की धारा में भी बदलाव आया। मनजीत के बाद कला, मोनिका व रुची ने उनके जीवन में आकर और भी खुशहाली भर दी।
रुची आज 5 साल की हो गई थी, मोनिका 8 की, कला 15 की और मनजीत 20 का। रुची के जन्म दिन पर ढेर सारे उपहार देने के बाद कान्ति भगवान का धन्यवाद देना नहीं भूली।
"...प्रभो आपकी बड़ी अनुकम्पा रही मेरे और मेरे परिवार पर। मैंने जो चाहा आपने दिया। हम आपके ऋणी है। बस... अब इतनी और कृपा करना प्रभो कि ये पढ़ लिखकर अच्छी नौकरीयों पर लग जायें, खासकर मनजीत... मनजीत पर अपना हाथ ज़रूर रखना ...प्रभो।"
मनजीत यूँ तो पढ़ाई में होशियार था, लेकिन लड़ाई झगड़ों में भी पीछे न रहने कारण माँ बाप को हमेशा एक डर सताता रहता था कि कहीं बेकार के लफड़ों में फंस कर अपनी पढ़ाई चौपट न करदे। कला उसके ठीक विपरीत थी। वो घर पर मम्मी का घर के कामकाजों में हाथ बँटाती। अपने छोटी बहिनों को देखती। उनकी बेबी सिटिंग करती। स्कूल में औरों के लिए वो एक रोल माडल थी। सबकी मदद करना उसकी कमजोरी थी। स्कूल में टीचर उसे "मदर ट्रीसा" कह कर पुकारते थे।
समय का फेर क्या दिन दिखाये ये कोई नही जानता। कान्ति के हरे भरे परिवार पर भी एक दिन समय की ऐसी गाज गिरी कि उसके परिवार की नींव हिलकर रह गई।
क्रिसमिस के उपलक्ष्य पर सारा शहर अपने अपने अनुसार अपने परिवार के सदस्यों व इष्ट मित्रों के लिए उपहारो की खरीदो फरोख़्‍त में लगा हुआ था, तो कोई घरों की सजावटों में।
कान्ति भी हर साल की तरह इस बार भी व्यस्त थी। वो ताहेफ़ों की लिस्ट को देखकर काट-छाँट करके जो बच गया था उसको अलग पेपर पर लिखकर, कल की शापिंग की लिस्ट में शामिल करने में लगी हुई थी। उसे क्या पता था कि आने वाला दिन उसके लिए एक दर्दनाक तोहफ़ा लेकर आ रहा है जो उसे हमेशा के लिए बदल देगा। उस मनहूस दिन को याद करके उसकी आँखों से आँसूओं की धारा बहने लगी।
कला ने मम्मी की आँखों से उमड़ते आँसुओं के सेलाब को देखा तो आहिस्ते से मम्मी का हाथ अपने हाथों में लेकर धीरे से सहलाया। आँसू पोंछे और कहा "...ममा रोयें मत। सब ठीक हो जायेगा।"
उस दिन कान्ति जल्दी उठ गई थी। नाश्ता पानी घर की साफ-सफाई चौका चुल्हा करके वो रजनीश से बोली ...
"...अज्जी सुनते हो...कुछ गिफ्‍़ट रह गये हैं। आप तयार हो जाइये, शापिंग करने जाना है..."
"हम तैयार हैं।" रजनीश ने पलट कर कहा। थोड़ी देर में कान्ति नीचे आकर गिफ्‍़ट की लिस्ट को उठाते हुये बोली...चलिए...
जाने से पूर्व कान्ति ने कला को आवाज दी ..., "कला बेटे..."
अन्दर से आवाज आई ..."जी मम्मी......"
"बेटा हम बाहर जा रहे हैं, घर का ख्याल रखाना...और हाँ...... मोनिका और रुची उठ जायें तो उन्हे नाश्ता करवा देना।"
"...जी मम्मी।"
"उन्हें बाहर मत जाने देना।"
"...जी मम्मी।" दोनों गाड़ी में बैठकर डाउन टाउन की ओर चल दिये शापिंग के लिए।
मोनिका रुची उठ चुकी थी। कला ने उन्हे नाश्ता करवा दिया था। तीनों टी. वी. देख रही थीं कि अचानक मोनिका ने कला से पूछा, "...दीदी मैं और रुची ऊपर खेलें।"
"...हाँ......हाँ खेलो लेकिन चीजें इधर उधर मत फेंकना, वरना मम्मी मारेगी।"
"नहीं हम नहीं फेंकेगे ......" दोनों ने एक साथ कहा और कहते ही ऊपर की मंजिल की ओर दौड़ पड़ीं। कला टी वी देखने में मस्त हो गई और वो दोनों ऊपर के कमरे में एक दूसरे के ऊपर तकिया फेंकने में लग गईं। जाने कब टी वी देखते देखते कला की आँख लग गई वो सोफे में लुढ़क गई।
ऊपर दोनों कमरों-कमरों में घुस-घुस कर ’हाईड और सीक’ खेल रहे थे। खेलते-खेलते मोनिका मनजीत के कमरे में घुस गई। वहाँ उसने उसके बिस्तर का गद्दा उठाया। ज्यों ही वे उसके अदंर घुसने जा रही थी, उसे एक पिस्तौल पड़ी दिखाई दी। मोनिका ने रुची को आवाज़ दी... "रुची ..."
रुची भाग कर मनजीत के कमरे की ओर लपकी। मोनिका के हाथ में पिस्तौल को देखकर उसने उससे पूछा......
"ये क्या है दीदी......"
"ये...ये बंदूक है बंदूक।" उसने रुची से कहा..."सुन अब हम चोर सिपाही का खेल खेलेंगे क्यों?"

रुची बोली... "लेकिन सिपाही मैं बनूँगी।"
"नहीं मैं बनूँगी......", मोनिका ने रौब से कहा, "सिपाही बड़ा होता है और चोर छोटा। तू छोटी है इसलिए तू चोर बनेगी।"
तुनक कर रुची बोली..."तू हमेशा बड़े होने क्यों रौब जताती रहती है?"
"...क्योंकि मै बड़ी हूँ इसलिए... चल तैयार हो जा ...।"
सुनकर जैसे रुची जाने लगी पीछे से मोनिका ने कहा...
"...अररर सुन... तू भागेगी तो मैं कहूँगी रुक ...रुक... रुकजा वरना गोली मार दूँगी, तू ना एक बार मुझे देखियो और फिर भाग जाइयो ...ठीक है ना।"
रुची ने सिर हिलाकर उसका समर्थन किया।
दोनों कमरे कमरों व लाबी में भाग भागकर ऊधम चौकड़ी मचा रहे थे। रुची जैसे ही कमरे से बाहर लाबी में आई पीछे से मोनिका ने पिस्तौल का निशान रुची पर साधते हुए कहा... "रुक जा ...मै कहती हूँ... रुकजा वरना गोली मार दूँगी। रुची पलभर के लिए रुकी। उसकी ओर मुड़ी। अपनी निश्छल हँसी को हँसते हुए मुड़ कर भागी। इतने में मोनिका फिर कहा ... "रुकजा... वरना गोली मार दूँगी।"
रुची मुशकिल से 10 कदम भी नही दौड़ी थी कि धड़ाम की आवाज के साथ गोली निकल कर सीधे रुची की पीठ को भेदती हुई सामने की दीवार में जा धंसी। रुची को गोली लगते ही, वो धड़ाम से फर्श पर गिर गई। पीठ से खून का फुब्बारा फूट कर बहने लगा, जिसे देखकर मोनिका हतप्रभ रह गई।
गोली चलने के धमाके की आवाज से कला एकाएक चौंककर उठ बैठी। इधर ऊधर देखकर उसने मोनिका और रुची को आवाजें लगाई.. " ...मोनिका...... रुची..." दो तीन बार आवाज लगाने बाद भी जब कोई जबाब नहीं मिला तो वो भागकर ऊपर की ओर लपकी। जो कुछ उसने वहाँ जाकर देखा। उसे देखकर उसके पाँव के नीचे की जमीन खिसक गई। रुची... औंधे मुँह जमीन पर गिरी खून के तालाब में सनी पड़ी थी। दूसरी ओर एक कोने में अपने घुटनों के बीच में डरके मारे अपना सर छुपाये मोनिका डर के मारे थरथर काँप रही थी। पास में पड़ा था वो पिस्तौल जिससे गोली चली थी। कला को स्थिति समझते देर नहीं लगी।

"...हे भगवान...... ये क्या हो गया। मै मम्मी को क्या कहूँगी। क्या जबाब दूँगी मैं उन्हें?" उसे कुछ नही सूझ रहा था। हिम्मत करके उसने पुलिस को फ़ोन किया ...... " ".........हलो, पुलिस...। जी...मै हाऊस नम्बर 55 ग्रीन ड्राइव, स्कारबोरो से बोल रही हूँ जल्दी आइये मेरी छोटी बहिन को गोली लग गई है प्लीज़ ......हरी.........। "
चन्द मिनट में पुलिस आ पहुँची। आते ही उन्होने सारी सड़क को सील कर दिया। पुलिस रुची को लेकर पास के हस्पताल चली गई। कुछ पुलिस वाले कला व मोनिका से घटना के बारे में पूछकर सूत्रों को इकट्‍ठा करने में जुट हुई थी।

कान्ति ने रजनीश से कहा ...
"सबके लिये तो ले लिये, बस एक गुड़िया रुची के लिए लेकर चलते है।"
रजनीश ने कहा... "ठीक है लेकिन जरा जल्दी कीजिये बहुत देर हो गई है। वे सब कह रही होंगी कि मम्मी पापा जाने कहाँ गायब हो गये।"
जैसे ही वे घर की गली के पास पहँचे तो देखा गली बन्द। पुलिस वाला ट्रैफिक को दूसरी गली की ओर इशारा करके उन्हे उधर से जाने को कह रहा था। पहले तो उन्होंने सोचा कि शायद कोई "ब्रेकइन" हुई होगी। इसीलिए शायद गली बंद है, कान्ति ने रजनीश से पूछा ..."क्यों हुई होगी हमारी गली बंद?"
"मालूम नहीं ... लेकिन फ़ॉर श्योर...... कुछ ना कुछ तो अवश्य हुआ है।"
कान्ति बोली, "रुको, मैं पता करती हूँ कि क्या बात है।" गाड़ी से उतर कर जैसे वह पुलिस के पास पहुँची उसने उससे पूछा... "आफिसर ये गली क्यों बंद है ..."
"...... 55 में किसी को गोली लगी है।" उस आफिसर ने दो टूक में जबाब दिया।
"...क्या कहा...?"
"55 नम्बर में किसीको गोली लगी है मैडम।" पुलिस का उत्तर सुन कर कान्ति का मन जोर जोर से धड़कने लगा। सोचने लगी कि कहीं मनजीत को तो कहीं किसने...... उसने रजनीश की ओर देखा। रजनीश उसका इस तरह से देखने अभिप्राय नहीं समझ पा रहा था कि क्यों कान्ति उसे घबराई घबराई नजरों से देख रही है। वह पुलिस को धक्का देकर आगे जाने के प्रयास में पुलिस से उलझने लगी।
"...आप आगे नहीं जा सकते।" पुलिस ने रोकते हुए कहा।
इतने में रजनीश भी वहाँ पहुँच गया। उसने पुलिस से रोकने का कारण पूछा तो पुलिस ने कहा...
"55 में किसी को गोली लगी है।"
"...वो हमारा ही घर है। सब ठीक तो है।" रजनीश ने कान्ति को अपनी बाँहों में लेते हुए कहा।
" खबर ठीक नहीं है।"
"...क्या मतलब......?" कान्ति ने रजनीश की ओर देखते हुए पुलिस से प्रश्न किया।
"वैसे बच्ची को हस्पताल लेकर गये है लेकिन......"
"लेकिन क्या ......?" घबराई कान्ति ने पूछा।
"बचने की कोई उम्मीद नहीं है। खून बहुत निकल चुका है।
"इतने में कला ने रोते रोते माँ के पास आकर उसके सीने से लिपट कर रोते हुए उससे कहा "......मम्मी रुची को ...।"
"...किसने मारी मेरी मासूम सी बच्ची को गोली।" कला को छाती से चिपकाते हुए कान्ति फफक पड़ी।
"मोनिका ने.........।"
इतना सुनना था कि कान्ति बेहोश होकर रजनीश के हाथों में झूल गई। पुलिस व रजनीश उसके चेहरे पर पानी के छींटे दे देकर उसे होश में लाने का प्रयास करने में लग गये। थोड़ा होश आने पर उसे घर पहुँचा दिया गया।
रजनीश ऊपर गया देखा मोनिका कमरे के कोने में डर के मारे दुबकी पड़ी है। उसके पास जाकर जैसे ही उसने उसके सर पर हाथ रखा। मोनिका जोर जोर से कहने लगी "...... नहीं पापा मैने नहीं मारा रुची को ...।"
गोद में लेते हुए रजनीश ने कहा... "मैं जानता हूँ ...जानता हूँ... तुमने जान बूझकर नहीं मारा। जो होना था सो हो गया लेकिन ये बता कि तुझे कहाँ से मिली थी वो पिस्तौल?"
"......भाई के कमरे में बिस्तर के नीचे से......" कहते कहते पापा से लिपट कर रोने लगी थी मोनिका। वो उसे चुप करने के प्रयास में था कि इतने में फोन की घंटी बज उठी। उसने फोन उठाया......"हलो...।" मनजीत ने आवाज पहिचान ली थी-
"... पापा... मम्मी से बात कर सकता हूँ ?"
"उनकी तबियत बहुत खराब है।"
"क्यों क्या हुआ मम्मी को?"
"खुद आकर देख लो।" खट से फ़ोन रख दिया था रजनीश ने।
मनजीत जैसे घर पर आया तो देखा चारों ओर पुलिस ही पुलिस। जैसे ही वे अंदर जाने लगा पुलिस ने टोका ...
"तुम्हारा नाम?"
"...मनजीत ...।"
उसे पकड़ते हुए पुलीस ने कहा, "यू आर अन्डर अरेस्ट ...। तुम्हें हत्या के जु्र्म में गिरफ़्‍तार किया जाता है।"
"लेकिन मैंने तो किसी का खून किया ही नहीं ...।"
"तुम्हारी गन से तुम्हारी छोटी बहिन का कत्ल हो गया है।"
"ओ माई गाड...... यह क्या हो गया!" कहते कहते वो रोने लग गया। इतने में रजनीश उसके पास आकर कहने लगा, "मनजीत... मैंने और तुम्हारी मम्मी ने तुम पे न जाने कितने सपने बुने थे। तुमने उन सब को तार-तार करके रख दिया। जानते हो... इनके टूटने के पीछे कौन और किसका हाथ है.. तुम्हारा। तुम्हारी इस पिस्तौल से एक नहीं कइयों की मौत हो गई बेटा। रुची मरी तुम्हारी गन की गोली से। माँ मर रही है तुम्हारी इन करतूतों से। कला को तो जैस साँप सूँघ गया हो। मोनिका तो इतनी डर गई है कि बात बात पर बेहोश हो रही है। रहा मै... मै चल फिर जरूर रहा हूँ लेकिन अन्दर से अपने को बहूत टूटा टूटा नहसूस कर रहा हूँ।"
"रुची गई...तुम भी कम से कम 10-12 साल के लिए तो गये ही समझो। तुम्हारी एक छोटी सी नादानी ने पूरे घर की बुनियाद हिला कर रख दी। क्या मिला हमे यहाँ आ कर। सब कुछ खत्म हो गया!"
कान्ति अपने विचारों में खोई हुई थी कि एक आवाज गूँज उठी ..."ऑल राईज...-" सुन कर कान्ति की तन्द्रा टूटी। उसके अगल बगल के सब लोग उठकर खड़े हो गये थे उसे भी कला व रजनीश ने सहारा देकर खड़ा किया, क्योंकि जज अपनी सीट पर बैठ चुका था।
थोड़ी देर में एक-एक करके मुलजिमों को ला कर जज के सामने प्ोश किया जाने लगा। काफी देर के बाद मनजीत कमरे में दाखिल हुआ। बाल बिखरे हुए, दाढ़ी बढ़ी हुई। ये देख कर कान्ति के आँखों के आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। दोनों, पक्ष विपक्ष की जिरह सुनने के बाद जज ने अपना फैसला सुनाया......
"हालातों और सबूतों को ध्यान में रखते हुए अदालत इस नतीजे पर पहुँची है कि यद्यपि मुलजिम मनजीत का मृतक की मौत में सीधा हाथ नहीं है, लेकिन उसकी गन जो कि फ़ायर एक्ट के तहत रजिस्टर भी नहीं है, जो कि कानूनी जुर्म है। चूँकि उससे चली गोली चलने से एस मासूम की जान गई इसलिए मुल्जिम कसूरवार है... कानून उसकी उम्र को ध्यान में रखते हुए उसे 5 साल की सजा सुनाती है।" इसके साथ ही जज ने हथौड़े को मारते हुए ये ऐलान किया।
जैसे हथोड़ा बजा कान्ति को लगा यह आवाज वहाँ नहीं, बल्कि जज ने उसके हृदय पर मारी हो। सब जज को चैंबर से बाहर जाते देखते रहे। मनजीत कटघरे में अपने जाने की प्रतीक्षा में सर झुकाये खड़ा था।